1 वरह लगता था । अिसी तरह दुष्ट मनुष्यका स्पर्श अन्हें सौंपकी तरह लगता था और वे चिल्ला झुठते थे। मैंने वापसे जिस बारेमें पूछा । वापूने कहा यह स्वाभाविक है, मगर यह चीज तुम कहते हो वैसे आत्मशुद्धिकी पराकाष्ठा बतानेवाली नहीं है । ओक चीजके लिये अितना तिरस्कार पैदा किया जा सकता है कि नींदमें भी असका स्पर्श हो जाय तो मनुष्य चौक पड़े । और खराब आदमीफे छु जानेसे भी वे चौकते थे, यह मुझे विरोधी बात लगती है। क्योंकि वे तो सभीमें भगवानको देखते थे अन्हें बुरे मनुष्यके प्रति तिरस्कार तो हो ही नहीं सकता था । बात यह है कि हमें तो असे महापुरुषोंकी महत्ताको स्वीकार करना चाहिये। अनके बारेमें दूसरोंको जो अनुभव हुआ हों, वे सम्भव है हमें न भी हों। मगर हमारे लिओ तो यह यात याद रखने और समझने लायक है कि अन्होंने कअियोंका अद्धार किया ।" निवेदिताका जिक्र छिड़नेपर वापू कहने लगे। "मैं भूल ही नहीं सकता कि जिसने पहली ही मुलाकातमें अंग्रेजोंके लिझे अत्यन्त तिरस्कार और द्वेषके वचन कहे थे। मुझपर कुछ दिखावटकी छाप पड़ी थी, मगर दूसरे की लोग कहते हैं कि वह गरीबसे गरीब भंगियोंके मुहल्लेमें रहती थी। अिसलिओ यह समृत मेरे लिअ काफी है। दूसरी यार पादशाहके यहाँ मिली थी । यहाँ पादशाहकी वृष्टी माँने अक कटाक्ष किया था वह याद रह गया है--अिस बहनसे कहिये कि जिसने अपना धर्म तो छोड़ दिया है, अब मुझे क्या मेरा धर्म समझाती है ?" - आज ७ वें अध्यायमेंसे 'अव्यक्त व्यक्तिमापनं 'वाले श्लोकमें और १२वे अध्यायके व्यक्तोपासना पर जोर देनेवाले श्लोकमें जो विरोध २-६-३२ है, असकी तरफ बापूका ध्यान खींचा। बापू कहने लगे " असे विरोध तो गीतामें बहुत जगह हैं । जिनका समन्वय मिस तरह समझकर करना है कि मेक बार अक बात पर जोर दिया गया है और दूसरी बार दूसरी बात पर । १२वें अध्यायमें अव्यक्त अपासनाका निषेध तो है ही नहीं, सिर्फ असकी कठिनता सुझायी है ।" मैंने पूछा - -"आपने भाभूको जो पत्र लिखा. या, असमें तो अससे कहा था कि तुझे व्यक्तकी उपासनाके बजाय अव्यक्तकी सुपासना करनी चाहिये १" बापूने कहा कारण वह जीवितोंका ध्यान धरता है यह ठीक नहीं है । कोभी जीवित मनुष्य सम्पूर्ण होता ही नहीं । गीतामें मूर्तिपूजाका अल्लेख हो, तो वह अवतारोंकी पूजाका है। मैंने कहा- " तो भी अवतार आखिर कौन ? सच्ची मूर्तियाँ हमारे पास हैं कहाँ १" बापू कहने लगे " अिसी लिअ तो मैं कहता हूँ कि हम 66 १९१
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