पृष्ठ:महादेवभाई की डायरी.djvu/२२४

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जगह दुखियोंके अर्पण कर दिया । अन्होंने आर्द्र हृदयसे लोगोंसे कहा कि पीड़ित भारतकी न टाली जा सकनेवाली पुकारने अन्हें बाहर जाने को मजबूर कर दिया । अन्होंने कहा : मुझे पका भरोसा हो गया है कि जिन भूखे आदमियों के सामने धर्मकी बात करना फल है । जिनके दुःख और जिनकी गरीबी मिटानेकी कोशिश पहले करनी चाहिये। मैं अिसीके लि, गरीब भारतके सुद्धारके लिओ, ज्यादा साधन जुटाने अमरीका जा रहा हूँ।" अित बातका पता मुझे पहली बार चल रहा है । मैं तो आज तक यह समझता था कि विवेकानन्द सिर्फ धर्म प्रचारके लिये वेदान्तकी सिंहगर्जना करने वहाँ गये थे। यह तो बड़ो विचित्र बात कहलायेगी कि हिन्दुस्तानमें धर्मप्रचारकी गुंजायश नहीं, अिसलिभे अमरीका जाकर धर्मका प्रचार किया जाय और वहाँसे दौलत लाकर गरीबी मिटायी जाय ! यह नादानी मालूम होती है। मगर पुस्तकमें दो तीन असा लगता है कि भुनका कुछ जैसा ही खयाल था। और अिस पुस्तक के यहाँ वाले सम्पादकोंने अिस बात पर कोभी टिप्पणी नहीं की। अिग्लैण्ड जाकर वापस आने पर भी वे कहते हैं कि ३० करोड़ रुपये लाने थे लेकिन नहीं मिले। "In that respect his journey had failed. The work had to be taken up again on a new basis. India was to be regenerated by India. Health was to come from within." "अिस मामलेमें सुनका सफर व्यर्थ रहा। वह काम नये ढंगसे फिर शुरू करना था। हिन्दुस्तान का अद्धार हिन्दुस्तानको ही करना था। स्वास्य लाभ भीतर से ही होना था।" ये रोलाँके शन्द हैं। यह आश्चर्य है कि विवेकानन्द जैसा प्रौद पुरुष अितनी-सी बात न देख सका । और रोला जैसा जबरदस्त विचारक अिस चातको औतिहासिक सचाओके तौर पर लिखकर सन्तोष न मानते हुअ असकी सफाभी देता है : ' And so in Vivekanand's eyes the task was a double one: to take to India the money and the goods acquired by western civilization and to take to the west the spiritual treasures of India. A loyal exchange. A fraternal and mutual help." "जिस तरह विवेकानन्दकी दृष्टिसे यह काम दोहरा था : पश्चिमकी संस्कृतिने जो रुपया और सम्पत्ति अिकडे किये हैं असमेंसे कुछ हिन्दुस्तान लाया जाय और हिन्दुस्तानके आध्यात्मिक भंडारमेंसे कुछ पश्चिमको पहुँचाया जाय । बड़ा ओमानदारीका सौदा था । भाभीचारेवाली और आपसकी मदद ।" २०१ 00 .