पृष्ठ:महादेवभाई की डायरी.djvu/२६०

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" " आपको - क्यों झूठ बोलते हैं ? मैं अिन लोगोंको सजा दूंगा । साफ आदमी है अिसलिभे कह दिया कि सजा दूंगा । वल्लभभाी कहने लगे-" यह कैसे मालूम हो कि वह सबते बड़ी जेलका सुपरिटेण्डेण्ट है । और यह क्या पता कि वह सही बात कहता है ? अन लोगोंका क्या कहना है, यह हमें कहीं मालूम है ? बापू किती जेलका सुपरिटेण्डेण्ट मुकर्रर किया जाय तो मालूम पड़े।" अिसी तरह प्रेमाबहनकी की हुश्री सुपरिटेण्डेण्टकी अनुदार आलोचनाके जवाबमें बापूने सुपरिटेण्डेण्टका पक्ष पेश करके प्रेमावहनको शरमाया असा वह अपने आजके पत्रमें लिखती हैं। कल आनन्दशंकरभाजीके बारेमें भी अन्होंने जैसा ही किया था। - हनुमानप्रसाद पोद्दारने अक महीने पहले पत्र लिखा था कि ीश्वरकी भद्धा आपमें किस तरह जामत हुी, जिसके लिझे अपनी जिन्दगीके कोभी खास अवसर बताजिये । बापूने पूछा था कि यह अपने लिभे पूछते हो या 'कल्याण में किसी दिन छापने लिभे? असका जवाब अभी आया कि 'कल्याण' के अपयोगके लिये । अन्हें वापस पत्र लिखा "किसी व्यक्तिको सामने रखकर तो आध्यात्मिक प्रश्नोंका अत्तर देने में मुझे सुविधा रहती है । अखबारोंके लिभे लिसनेमें कष्ट होता है । अब यह ज्ञात हुआ कि जो प्रस्न मुझे पूछे थे वह 'कल्याण के ही लिओ थे, तो असा ही समझो कि मेरी बुद्धि जड़-सी बन गयी है । झिसका यह मतलब नहीं है कि अखबारोंमें कुछ लिखा जाय, तो अससे जनताको लाभ नहीं होता । मैं तो अपनी प्रकृतिका खयाल दे रहा हूँ। अिसी कारण मैंने 'यंग सिंडिया' में बहुत दफे लिखा है । मेरी दृष्टि से वह कोजी अखबार । नहीं था। परन्तु मित्रों को मेरा साप्ताहिक पत्र या । और जो कुछ आध्यात्मिक बातें असमें और नवजीवन में पानी जाती हैं, वे करीब करीब किसी न किसी व्यक्तिको सामने रखकर ही लिखी गयी है । जिसका कारण भी है । मैं शास्त्रज्ञ नहीं हूँ, जो भी में बुद्धिका काफी झुपयोग कर लेता हूँ । परन्तु जो कुछ बोलता और लिखता हूँ, वह बुद्धिसे नहीं पैदा होता । असका मूल हृदयमें रहता है और हृदयकी बात निबन्धके रूपमें नहीं आ सकती है।" बापूने यह भी लिखा था कि " किसको किस प्रसंग पर भीश्वरज्ञान हुआ, यह जाननेसे औश्वरशान नहीं होता, मगर संयममयी श्रद्धासे होता है ।" पोद्दारने संयममयी श्रद्धाका स्पष्टीकरण मांगा।' संयममयी श्रद्धा' शब्दप्रयोग मैंने लाचारीसे किया था । वह मेरे सब भाव प्रकट नहीं करता है । और कोजी शब्दरचना अिस वक्त मेरे खयालमें नहीं आती है। तात्पर्य यह है कि वह श्रद्धा मूल, विवेक- हीन, अन्ध नहीं होनी चाहिये । अर्थात् जिस जगह बुद्धि भी चलती है वहाँ कोसी कहे कि 'बुद्धि कुछ भी कहे, मैं श्रद्धासे वही मानता हूँ और मानूंगा' तो अिस २३७