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पृष्ठ:महादेवभाई की डायरी.djvu/२७३

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? , आज वल्लभभाभीने पूछा "मोज़िज़ कौन था ? वह मुहम्मदके बाद हुआ या पहले ?” आश्रमकी लड़कियोंमें शारदा बड़ी विचक्षण है। असका पूछा हुआ अक सवाल यह था कि अगर बहन ओक ही धर्मका फलकी आशा रखे बिना पालन करती हो, तो वह भाीकी सहधर्मचारणी क्यों नहीं कहलाती ? आश्रममें अब पक्षी बहुत आने लगे हैं, जिस पर भी अिस लड़की आनन्द प्रगट किया था । और नये आये हु मोरोंमें से जो अक खुबसुरत मोर मर' गया, असका जिक्र करके लिखा कि जब वह जीता था, तब बहुत शोभायमान्छ लगता या । मगर मर गया तब बहुत बुरा लगता था और शरीर बदल देता था । वापूने असे लिखा ." जो बात मोरकी वही अपनी समझ । सुन्दर दीखनेवाले स्त्री-पुरुष भी मरनेके बाद दीखने में अच्छे नहीं लगते और हम अन्हें जल्दीसे जला डालते हैं। अिसीलि) शरीर पर मोह न रखना चाहिये । सहधर्मचारिणीका अर्थ मूलमें जो तू करती है वही है। मगर व्यवहारमें यह पत्नीके लिओ ही अिस्तेमाल होता है । बहन शादी होने पर भाीके साथ नहीं रहती । 'चारिणी' में जीवनभर साथ रहने की गन्ध है। और शब्दका अक अयं चालू हो गया है अिसलि बदलना मुश्किल है। जरूरी भी नहीं है ।" अक दूसरे पत्रमें लिखा " मन्दिरों और चौराहोंका झुपयोग तो मशहूर है । अनके जरिये लोग जमा होते हैं, भजनादि करते हैं और सभायें वगैरा करते हैं | और यही अद्देश्य था । " मूर्तिपूजाकी जरूरत है या नहीं, यह प्रश्न सुठता ही नहीं। क्योंकि यह अनादिकालसे है और रहेगा । देहधारी मात्र मूर्तिपूजक ही होता है । 'वैष्णवधर्मकी पूजा विधिमें फेरबदल भिष्ट हो सकता है । अीश्वर सब्द जगह है, अिसलि मूर्तिमें भी है । मूर्तिपूजाका नाश मैं असम्भव मानता हूं।" लड़केकी पत्नीको : " बाबुके कानमें तेलकी बूंदें डालती हो, असमें लहसमकी फली कड़कड़ा लो तो शायद ज्यादा फायदा देगा।" ओक और पत्र में "अनासक्तिका अर्थ बेशक यह है कि अपने और अपनोंके प्रति हम अनासक्त रहें । 'पर के प्रति यानी सत्यके प्रति, औश्वरके प्रति आसक्ति और वह यहाँ तक कि तन्मय हो जायँ, तद्रूप हो जायें । यह अर्थ नहीं समझमें आता, अिसीलिओ निरुत्साह वगैरा दोष पैदा हो जाते हैं।" आज अचानक अल्कोजोको बुलाने गया तो वहाँ क्रेसवेलसे मुलाकात हो गयी । असे अफसोस है कि वह हमसे नहीं मिल सकता । २६-६-३२ असे भ्रम है कि शायद सुसने राजनीतिक कैदियोंके वारेमें अखबारोंमें पत्र लिखा, जिस कारण मुलाकात,