पृष्ठ:महादेवभाई की डायरी.djvu/३०७

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"बेचारा 'मुसलमान' पत्रका मालिक 'दिया, वह पढ़ा । बापू कहने लगे. यह जवाब समझ भी न सकेगा।" आज डाकमें खास तौर पर चुनकर दो तीन पत्र सरकारके भेजे हुआ आये । मानो तंग करनेको ही न असे पत्र भेजे गये हों ? १३-७-२३२ अकमें किसी मुसलमानकी गालियाँ हैं। दूसरेमें अक साहब कहते हैं कि भगवान कुछ नहीं कर सकता और कर्मका ही फल मिलता है, तो फिर भगवानकी पूजा करनेके बजाय अस पर दया क्यों न की जाय ?' जैसे पत्र बेचारे मेजर जान बूझकर देते ही न थे और कामके पत्र दे देते थे। अब सरकारके यहाँ कामके पत्र तो रह जाते हैं और निकम्मे यहाँ भेज दिये जाते हैं। मैंने कहा "चिढ़ानेके लिओ ही तो?" बापू कहने लगे- ." वल्लभभाभीका अदार अर्थ करना अच्छा होगा।" वल्लभभाभीने यह अर्थ किया था कि किसी कारकूनको काम सौंपा होगा | वह जो पत्र बिलकुल निर्दोष लगते होंगे अन्हें पहले भेज देता है और बाकीके बड़े अफसरको दिखानेके लिभे रख लेता होगा । " वल्लभभाभी शायद ही कभी सरकारके कामोंका जितना अदार अर्थ करते हैं।" बापू आजकल संस्कृतकी पदाी करने लगे हैं न?" -- मैंने कहा- “

" "There is nothing that so defileth and entangleth the heart of man as an impure attachment to created things. If thou wilt refuse exterior consolations, then shalt thou be able to apply thy mind to heavenly things and experience frequent interior joy. "दुनयावी चीजोंके प्रति अपवित्र आमक्ति' जैसी कलुषित करनेवाली और मोहजालमें फँसानेवाली दूसरी कोी चीज नहीं है । तू बाहरकी तृप्तिसेः अिनकार करना सीख लेगा, तभी अपने चित्तको दिव्य वस्तुओंकी तरफ मोड़ -सकेगा और भीतरी आनन्दका अनुभव कर सकेगा।" २. ये तु माना दीपा दुःखयोनय अव ते । २. यत्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः । २८४