"अशियावासियोंके अिस दुनियाको देखनेके तरीकेसे ही किसी भी चीजसे अिनकार न करनेवाले व्यापक धर्मका और व्यापक तत्वज्ञानका अदय हो सकता है । जिसीले सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था अक सिद्धान्तके रूपमें सम्भव है। जगत्के प्रति अशियावालों जैसी भावनावाला आदमी, ही झूचेसे अचे अर्थमें सुरुचिवाला बन सकता है । मात्रा स्पष्ट शानके सिवा सुरुचि और है ही क्या ? जिसकी आँखोंने जापानमें तालीम पायी है, वह युरोपमें शायद ही अपनी आँखें खोलना चाहेगा। सब कुछ हँस हँस कर भरनेकी हमारी आदत कितनी जंगली है ! हम चीजोंको अनकी असल जगह पर रखी हुओ शायद ही देखते हैं। हमारे चित्र किस तरह जहाँ तहाँ घुसाये हुओ रहते हैं ! और युरोपवालोंको शायद ही यह खयाल होता है कि कमरा अिन्सानके लिओ है, भिन्सान कमरेके लिये नहीं। परदे या तस्वीरको अच्छी तरह लगाना जितना महत्वपूर्ण है अससे ज्यादा महत्वपूर्ण अपने आपको ठीक तरह रखना है। जापानी मन्दिरकी खुबी असके आसपासके वातावरणमें है। अससे उसको अलग नहीं किया जा सकता। यह बात ध्यान खींचने लायक है कि जापानी युरोपियन पहनावा और रहन सहन धारण करने लगा कि तुरन्त अपनी सुरुचि खो बैठता है।"
अिस आदमीका पूर्वके धर्मग्रन्थोंका अध्ययन अच्छा मालूम होता है । गीता और अपनिषदोक जितने अद्धरण हैं वे बिलकुल ठीक हैं, और जैसा लगता है कि याददाश्तसे लिखे हों। लाओत्सका अक विचार बहुत सुन्दर है : "Heaven is eternal and the earth enduring. The Cause of the eternal duration of heaven and earth is That they do not live unto themselves. Therefore they can give life continuously." " स्वर्ग शाश्वत है और पृथ्वी भी सनातन है। स्वर्ग और पृथ्वीकी शाश्वत इस्तीका कारण यह है कि जिन दोनोंकी हस्ती खुदके लिअ नहीं है। अिसीलिओ वे हमेशा जीवन देते रहते हैं।" औसा और बुद्ध क्यों अमर हैं, यह अच्छे ढंगसे बताया है: "Most people are really dead before their death, that is to say, they cease to be the bearers of conciousness no matter whether they continue to exist objectively; there are only a few who continue beyond a limited period. If, however, a man arises who knows how to incarnate a fundamental world idea in his person, as Buddha and Christ succeeded in doing, then he goes on living through all eternity."