पृष्ठ:महादेवभाई की डायरी.djvu/३३८

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- आप मालूम होता हो, तो भिसे बन्द कर देना ही ठीक है । और क्या यह भयंकर नहीं लगता कि कोमी आदमी मर रहा हो, असे मैंने पत्र लिखा हो, वह पत्रके लिभे तरस रहा हो और पत्र यहाँसे पास होकर जाय अससे पहले वह मर जाय ? ये लोग यदि यह कहेंगे कि हमारे दफ्तरमें आदमी कम हैं, हमसे काम नहीं सँभलता, तो यह बात समझमें आ सकती है। मगर अिन्हें तो किसी विश्वास- पात्र आदमी पर छोड़नेके बाद खुद देखना है । मुझे तो अिस बात पर भी चिक होती है कि सुररिष्टेण्डेण्ट और जेलरके प्रति अविश्वास है । मगर जिन्हीं लोगोंमें जब आग नहीं तो हम क्या करें ?" वल्लभभाभीसे कहा संस्कृतमें श्रेय और प्रयके बारेमें पढ़ेंगे । अिस मामलेमें प्रेय कहता है कि हम पत्र लिखते रहे और श्रेय कहता है कि छोड़ दें।" आज आश्रमकी डाकमें १९ पत्र भेजे, मगर सबको सूचना दे दी कि पत्र किसी भी वक्त बन्द हो जायें तो चिन्ता न करें। अनासस्तिकी यही निशानी है । प्रमुदासको सत्य और ओवरके बारेमें लिखा "सत्यके बारेमें मुझे कुछ कहना नहीं है। अविरकी व्याख्या मुदिकल है । सत्यकी व्याख्या तो सबके दिलोंमें मौजूद है। तुम जिसे अिस समय सच मानते हो, वही सत्य और वही तुम्हारा परमेश्वर । अपनी कल्पनाके अिस सत्यकी आराधना करते हुआ मनुष्य अन्तिम शुद्ध सत्य तक पहुंच ही जाता है। और वही परमात्मा है । आजकल मैं वेदोंका सार पढ़ रहा हूँ। असमें भी यही बात है । मेरे खयालसे तो जब तक हमें सच्चा जीवन जीना नहीं आता, तब तक सारी पदाी वेकार है । सच्चे जीवनमें बनावटकी गुंजायश ही नहीं है। सत्यका पुजारी जैसा है, वैसा ही दिखायी देगा । असके विचार, जबान और काममें अकता होगी। मीश्वरको सत्यके रूपमें जाननेसे यह शिक्षा जल्दी मिलती है । असा सत्यमय जीवन बनानेके लिझे बहुतसी पोथियाँ अलटनी नहीं पड़ती, मगर सारी बाजी ही हमारे हाथमें आ जाती है । हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापि- हितंमुखं, तत्त्वं पूषन्नपावृणु, सत्यधर्माय दृष्टये । जिस मंत्रका विचार करना ।" पुरातनको लिखा "मेरी चेतावनी तुम्हें सवाल करनेसे रोकनेको नहीं थी, मगर अन्तर्मुख होनेके लिओ थी। मुख्य चीज जान लेनेके बाद अपवस्तुओंका हल करना हमें आना चाहिये । न आवे तब तक यह नहीं कहा जा सकता कि मुख्य वस्तु समझमें आ गयी है । यह तो भूमितिके साध्य जैसी है। यदि ओक आ जाय तो अससे पैदा होनेवाले दूसरे अभ्यास आने चाहिये। कपिलको "तकली चलाना अक सेवा है। तुम्हारे आसपास बच्चे हों अन्हें शिक्षा दो या बड़े हों झुनके लिखे शतकी पाठशाला चलाभो, तो यह भी ३१७