'पहले हुआ था और आजकलके लोग अिसी संकरसे पैदा हु हैं। अगर कोभी जनेअ पहने तो सबको पहननेका अधिकार होना चाहिये, असे प्रयत्नमें मैं कोली सार नहीं देखता। अिस कारण मैंने जनेशू छोड़नेके बाद फिर पहननेकी कोशिश नहीं की, भिच्छा भी नहीं की । और जहाँ तक जनेअते अँच-नीचका भेद पैदा होनेकी सम्भावना है, वहाँ तक वह छोड़ने लायक ही ठहरती है । गौरी- प्रसादको तो मैं कहूँगा कि वह जनेशूका मोह छोड़ दे । जनेशू ब्रह्मचारीकी निशानी है। अगर ब्रह्मचर्यका पालन किया जाय तो वह अत्तम जनेशू है । सूतके धागेका क्या प्रयोजन ? काकाको आकाशदर्शनके विषयमें लिखते हु "मेरी दिलचस्पी दूसरी ही तरहकी है । आकाशको देखने पर जिस अनन्तताका, स्वच्छताका, नियमनका और भव्यताका खयाल आता है वह हमें शुद्ध करता है । ग्रहों और तारों तक पहुँच सकते हैं और वहाँ भी शायद वही अनुभव हो जैसा पृथ्वीके सारासारका होता है। मगर दूरसे अनमें जो सौन्दर्य भरा दीखता है और वहाँसे टपकनेवाली शीतलताका जो शान्त प्रभाव पड़ता है, वह मुझे अलौकिक मालूम होता है । और हम आकाशके साथ मेल साधे तो फिर कहीं भी बैठे हों तो कोी हर्ज नहीं। यह तो घर बैठे गंगा आयी वाली बात है । अिन सब विचारोंने मुझे आकाशदर्शनके लिअ पागल बना डाला है । और अिसलिओ अपने सन्तोपके लायक ज्ञान प्राप्त कर रहा हूँ। वल्लभभाभीके तीखे विनो कभी तीरकी तरह चलते हैं। वेचारे , मेजर मेहता पूछने लगे 'ओटावामें क्या होगा ? अिस पर २५-७-३३२ वल्लभभाभी कहने लगे नाहक ओटावा तक गये हैं ! जो चाहें सो यहीं आर्डिनेन्ससे कर लें। फिर वहाँ तक जाना ही क्यों पड़े ?" वे बेचारे दिग्मूल हो गये। आज पत्रव्यवहारके बारेमें डोअीलको पत्र लिखकर भेजा । मगर सुपरिटेण्डेण्ट साहब ही डर गये और कहने लगे नहीं बाबा, जैसा पत्र न भेजिये। जिसका अर्थ शायद यह लगाया जायगा कि यहाँके हिन्दुस्तानी कर्मचारियोंने आपके पास शिकायत की है।' अिसलिझे कल तक पत्र मुलतवीं रहा । डरका मानस अजीव होता है । अिन्सानको सीधा खड़ा करना चाहें, तो वह खड़ा होनेसे भिनकार कर देता है । ने फिर संताननिग्रहके बारेमें बहस की ." अिससे बुरे परिणाम निकल सकते हैं, जिसमें शक्तिका भी ह्रास होता है। मगर अक खास तरहकी औलादको-कमजोर और रोगीको-रोकनेकी जरूरत हो तो क्या किया जाय ?" चापूने भिन्हें लिखा : " संतति नियमनके बारेमें तो .मेरा दिल विरोध ही करता » । ३.१९
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