पृष्ठ:महादेवभाई की डायरी.djvu/३४४

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- तुम यह भी जानते हो कि हम क्या मानते हैं। हम सब अिस दुनियामें देनदार बन कर आये हैं; और जब वह फर्ज पूरा हो जाता है, तब चले जाते हैं । वचीका कर्ज पूरा हुआ और वह मुक्त हुभी । तुम्हें, ललिताको और इम सबको अभी अपना कर्ज चुकाना है।" अिस बार मुझे मुलाकात नहीं दी असके बदलेमें जब यह प्रार्थना की कि मुझे रामदास या मोहनलालसे मिलने दिया जाय, तो २७-७-३२ कहने लगे. " जब मिस यार्डसे दूसरे यार्ड में ही नहीं जाने देता, तो दूसरे वर्गके कैदीसे तो मुलाकात हो ही कैसे !" मैंने कहा कि साबरमतीमें तो हम मिल सकते थे। अन्हें आश्चर्य हुआ । वल्लभभाीने तुरन्त चोट की. "वहाँ होता होगा, मगर यह जेल तो सरकारकी बड़ी छावनीके पास जो है ।" आश्रमकी डाक कल नहीं आयी । औसा दीखता है कि फिर किसी चकर में पड़ गयी है। वायरनका 'प्रिजनर ऑफ शिलोन' पढ़ लेनेकी अिच्छा होती है। मगर मिले कहाँसे ? अिसफा शुरूका गंभीर संबोधन बार बार पढ़कर याद कर डाला। वल्लभभाीको संस्कृत सीखनेमें बड़ा मजा आ रहा है । 'वासांसि' क्यों अिस्तेमाल किया और 'वस्त्राणि' क्यों नहीं ? अक वचन, द्विवचन और बहुवचन क्या होता है और स्वर किसे कहते हैं. और व्यंजन किसे कहते हैं, कृदन्त किसे कहते हैं, वगैरा प्रारंभिक सवाल बालोचित निर्दोपितासे पूछते हैं और नये शब्द सीखते हैं। और जो सीखते हैं सुनका प्रयोग करते हैं । यह तुम्हें शोभा नहीं देता, जिसके लिसे कहेंगे - अिदं न शोभनं अस्ति ।' और कहर टोरियोंके लिअ कहते हैं -"ये सब तो आततायी' लोग हैं। आज पूछने लगे "शनैः शनैः के माने शनिवार है ?" « 'वासांसि' क्यों अिस्तेमाल किया और 'वस्त्राणि' क्यों नहीं ? अिस सवालका जवाब तो रस्किन जैसा ही दे सकता है ।" अिस तरह वापूने कहा। को दूसरे विवाहकी सिफारिश की । “असा करनेसे तुम किसी दिन निर्विकार बनोगे। आज तुम्हारे लिअ यह असंभव-सा लगता है । तुम्हारे क्रोधका कारण भी वही है । तुम्हारी स्वादेन्द्रिय बलवान दीखती है। अिसमें आश्चर्य नहीं। क्योंकि काम, क्रोध, रस वगैरा सब साथ साथ चलते हैं। तुम मानते हो कि तुम अपने काममें ओतप्रोत हो । मुझे जिसमें शक है । जिसका अर्थ यह नहीं कि तुम लापरवाह हो। मगर जो आदमी अपने कर्तव्यमें डूबा रहता है, वह विकारवश हो ही नहीं सकता । जितनी फुरसत कहाँसे पायेगा? तुम्हारी यह "