थे और अनके अपाय भी मुझसे पृछते थे। बस, लुटावनसिंहको मैंने अपवास कराये और फिर चावल, दूध और नारंगीके छिल्केके मुरम्बे पर असको रखा । अक महीनेमें असका दमा जाता रहा । अससे बीड़ी भी छुड़वा दी थी । वहाँ तो हमारा मानेका पड़ा कमरा था । उसमें पचासेक लोग सोते थे । अक दिन असा हुआ कि मैं बाहर सोया हुआ था और लुटावनसिंह अन्दर । मेरे पास टार्च तो रहती ही थी । बीड़ी सुलगती देखी और मैंने तुरन्त टार्च जलाी। लुटावनसिंह शरमाया, मेरे पैर पकड़ लिये । बोला अब कभी नहीं पीअँगा । यह हरामखोर मन बसमें नहीं रहता । क्या किया जाय ?' जिसके बाद मुझे खयाल है कि असने चीनी नहीं पी और दमा तो चला ही गया ।" - - . आज बाकी सूचनासे कुकर, दाल-चावल वगैरा मँगवाये । वल्लभभाभी बोले "तीन महीनेसे परहेजी खाना मिलता था। अब देखेंगे तु कैसा भोजन देता है।" बापूने यह फेर-बदल बड़े प्रेमसे सुझाया। मगर जैसा नहीं लगा कि अभी गेटी और झुबले हुझे साग और दूधके जो प्रयोग हो रहे हैं, अनमें फेर- बदल करना सुनको पसन्द है । 'जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिः' जैसा प्रसंग आ पा । घड़ी भरके लिओ असा लगा कि कहीं बापूके पिताने बचपनमें अन्हें, नाटक देखने की जैसी अिजाजत दी थी, वैसी ही तो यह बात नहीं है ! बापूने From Adam's Peak to Elephanta (फ्रॉम अॅडम्स पीक टु अलीफ़ेप्टा) पूरी करके स्टोक्सकी पुस्तक ली । भूल गया, बीचमें 'अनर' नामकी मय* बारेमें अक छोटीसी मैथिलीशरण बाकी सुन्दर पुस्तक यापूने अक दिनमें पूरी कर दी । और मुझसे भी पड़ जानेका आग्रह किया। हंगप्रभादेवीकी माधुता, कुशलता, धीरज, हिम्मत और अद्यमके बारेमें कल ही यापूने नारणदासमाओके खतमें जिक किया था। अिन बहनका अक दर्दभग पर आया था। असमें उन्होंने पूछा या अिस मानव-देहमें प्रभुके दोनही मकते हैं?' असे याने जवाब दिया मनुष्य-देहमें अीश्वग्दर्शन दोगा या नहीं, या प्रश्न गीतामात्तके मनमें पैदा ही नहीं होता; क्योंकि वह पाका अधिकारी, फलका कभी नहीं । और जिस बातका अधिकार नहीं है, भगा मिनार को किया जाय ? फिर भी मेरी गय है कि देह रहते पूर्ण साक्षात्कार अंगभर है। दम ठेट गुमके, पाम तक जहर पहुँच सकते हैं, मगर शरीरकी नामे द्वारप्रया असमय मालूम होता है । औवरके विरहका दुःग्य तो मदाही गाना नादिय । बदन मेगा तो प्रयत्न बन्द हो जायगा या गिथिल पण । शिद-दुःपशा नगीना निगमा नहीं, आया होना चाहिये; मन्दता $ -
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