" यह बापू आज जमनादास और ब्रेलवीसे (सरकारसे ली हुी मंजुरीसे) और रामदास और हरगोविन्दसे मिले । तीन ही आदमी ५-८-३२ मिल सकते थे, अिसलि रामदासने अपने स्वभावके अनुसार कहा 'हरगोविन्द तुम आओ, मैं अगली बार सही,' और बापूके नाम स्लेट पर पत्र लिखा । वापूने सुपरिष्टेण्डेण्टसे कहा रामदास निराश होकर जायगा । आप असे मुझसे मिलने न दें, मगर क्या असे मुझे देखने भी नहीं देंगे? असे नीचे खड़ा रहने दें और मैं जा तब मुझे वह देख ले, तो अितना करनेमें आप कानून नहीं तोड़ते । " रामदासको बुलवाया। अन्होंने प्रणाम किया और जाने लगे। सुपरिण्टेण्डेण्ट पर असर पड़ा और बोला : "नहीं, नहीं, रामदासके जानेकी जरूरत नहीं । बैठो ।" मैं यही कहूँगा कि यह रामदासके त्यागका नतीजा निकला । यह नहीं कहा जा सकता कि यह सुपरिटेण्डेण्टकी भलाीका था या बापूने रामदासके करुण सन्देशके कारण जो आग्रहभरी विनती की थी असका प्रभाव पड़ा । मगर रामदासके शुद्ध त्यागका फल जरूर कहा जायगा । हरगोविन्द पंड्याने पूछा कि मुझे बाहर जाकर क्या करना चाहिये, जामसाहबके विरुद्ध झगड़ा करना या रियासतमें रहनेका सरकारका हुक्म तोड़कर वापस जेलमें पहुँच जाना ? बापूने कहा " मुझसे यह राय न दी जा सकेगी। मुझे बाहरकी हालतका खयाल नहीं हो सकता । और हो सके तो भी मैं राय नहीं दे सकता " जिसके बाद हरगोविन्द पंड्याने सिद्धान्तका प्रश्न अठाया " आपने तो कहा है न कि देशी राज्योक विरुद्ध सत्याग्रह हो ही नहीं सकता।" यह कोभी त्रिकालाबाधित सिद्धान्त है क्या ? सत्य और अहिंसाके सिवा मैंने त्रिकालाबाधित सिद्धान्तके रूपमें अक भी चीज नहीं रखी। अरे, मैं तो आगे बढ़कर यह कहता हूँ कि त्रिकालाबाधित वस्तु अक सत्य ही है, क्योंकि किसी हालतमें अहिंसा और सत्यके अक ही होने पर भी यदि अिन दोनोंके बीच चुनाव करना पड़े तो मैं अहिंसाको तिलांजलि देकर सत्यको कायम रखने में आगापीछा नहीं देखंगा। मेरे खयालसे सत्य ही सबसे बड़ी चीज है।" जमनादास और नेलबीके साथ काफी विनोदभरी बातें हुीं । अिन लोगोंको कर्मचारियोंने जैसी पट्टी पढ़ा रखी थी कि कुछ पूछनेकी सुनकी हिम्मत ही नहीं होती थी । बापूने सुन पर दबाव डाल कर पूछा "क्या तुम्हें कोभी शिकायत नहीं करनी है ? नासिकमें यहाँसे अच्छा हाल था या बुरा ?" वगैरा वगैरा आखिर सुपरिण्टेण्डेण्टने ही कहा " अिनको अक शिकायत है और वह यह कि रविवारको अिन लोगोंको दो बजे बन्द कर दिया जाता है, वह अनुक्कल नहीं पड़ता। बाप्पू कहने लगे - - ३४१
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