पृष्ठ:महादेवभाई की डायरी.djvu/३६४

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" बापूने कहा- “अच्छा, पर चली । वे कहने लगे 'यह अधिकार तो है ही नहीं । " बापू बोले. "तो पूछ लीजिये डोभीलको कि हमें बताी जाय या नहीं ?" वे बोले " आपको बता दूं और फिर आप कहें कि मेरी समझसे आपको अधिकार है और मैं कहूँ कि मुझे अधिकार नहीं है तब क्या हो ?” "तो डोजीलसे पूछना। "तो फिर वहाँ मालूम हो जाय न कि मैंने आपको जेल मैन्युअल बताया ? " यह न बताते हुओं वैसे ही पुछवाना । मैं अिस मौकेको लेकर मैन्युअल प्राप्त करनेके लिअ नहीं लडूंगा।" सुपरिण्टेण्डेण्टने कहा- तो मैं कल नियम देखेंगा और फिर आपको बताभुंगा ।" मैंने कहा- किस लिभे? अभी ही मैंगवा लीजिये जिससे फौरन फैसला हो जाय ?" बापूने कहा ." जाभिये, आपको वचन दिया कि मुझे जरा भी लगेगा कि आपका अर्थ लग सकता है तो में झुसे मान लूंगा । अगर यह लगा कि दो अर्थोकी गुंजायश ही नहीं, और मेरा ही अर्थ सही है, तो फिर आप आमी. जी. पी.को लिखियेगा ।" वे राजी हो गये। पुस्तक मैंगवामी गयी। काली कितावमेंसे कलमें पड़ी गयीं। कलममें था कि “किसीकी धार्मिक भावना दुखानेकी मनाही है । ब्राह्मण अगर ब्राह्मणकी बनायी हुी रसोजीका आग्रह करे, तो असे दी जा सकती है । हाँ, वह सिर्फ तंग करनेके लिओ ही यह माँग न करता हो । प्राह्मण रसोमिया कैदी न हो, तो असे खुद रसोगी बना लेनेकी छूट होनी चाहिये । मगर जातपातकी रूसे पेश किये जानेवाले अधिकारोंके मामले में सुपरिटेण्डेण्टको कोजी शंका हो, तो असे आमी. जी. पी. से जरूर पुछवाना चाहिये और अनका हुक्म आखिरी माना जायगा ।" बापने पढ़ कर तुरन्त कह दिया आपका अर्थ सही है ।" सुपरिटेण्डेण्टकी खुशीकी कोभी हद नहीं थी। उसने देख लिया कि गांधीजीसे शुद्ध सौ टंच न्याय मिल सकता है । लड़कोंको बुलवाया गया। अन्हें बापूने कहा और वे फौरन मान गये । यह प्रकरण सुपरिटेण्डेण्ट और बापूके सम्बन्धको ज्यादा मीठा और समझवाला बनानेमें बहुत अपयोगी साबित हुआ । . " अन्दरकी आज आश्रमकी डाक खतम की। प्रभुदासके नामके पत्रमेंसे नाम-जपनके पीछे तू भूतकी तरह पड़े रहना। कहींसे सहायता नहीं मिले ७-८-३२ तब भी अिससे जरूर मिलेगी। " प्रेमावहनको आवाज जैसी चीज है, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। मगर कभी बार हमें जैसा खयाल हो जाता है कि भीतरसे अमुक प्रेरणा हुी है । मैंने जब असे पहचानना सीखा, वह समय मेरा प्रार्थनाकाल कहा जा सकता है, यानी १९०६के आसपास । तू पूछती है अिसलिओ याद करके यह लिख