>> जब मैंने बीड़ी पीना शुरू किया था और यह महसूस हुआ था कि यह बुरा हो रहा है और स्वीकार कर लेना चाहिये । उसके बाद दिन दिन सत्यकी समझ और अमलमें विकास होता. ही रहा है । दोपहरको कलेक्टर आया । वह कहने लगा "असा निर्णय न दें तो क्या हो ! कुछ न कुछ निराकरण तो होना ही चाहिये । असे मामलोंमें बिलकुल न्याय और हक पर आग्रह रखा जा सकता है ?" बापू कहने लगे -“यह फैसला गैरवाजिब भले ही हो, मगर सर्वसम्मत होना चाहिये । अिसके पीछे तो कोसी सम्मति नहीं है । विलायतमें माँगा, मगर अिन लोगोंने यह नहीं देखा कि वहाँ तो जिस सम्मेलनकी राय बन चुकी थी अससे निराकरण चाहा गया था। वह मिल नहीं सकता था ।" फिर दलित जातियोंकी बात निकली । वह पूनाके अछूतों परसे ही अनुमान लगाता था । अन्तमें कहने लगा - " यह खुब मूर्खताभरी और प्रजातन्त्रविरोधी व्यवस्था है। मगर और हो ही क्या सकता है ?" सवेरे बापू कहने लगे सत्याग्रहका नियम है कि जब मनुष्यके पास और कोी साधन न रहे और बुद्धि यक फर बैठ जाय, तब अपने शरीरको त्याग देनेका अन्तिम कदम अठाया जाय । राजपूत स्त्रियों क्या करती थीं ? कमलावतीने, जिसके बारेमें हम अस दिन पढ़ रहे थे, क्या किया ? असका निश्चय यह था कि जीवे-जी दुश्मनके हायमें नहीं पड़ना है और अिसलिमे वह मोतके मुँहमें चली गयी।" आज मुझे और वल्लभभाभीको बार बार विचार आये कि किसी भी तरहसे यह खबर बाहर पहुँच जानी चाहिये । मगर बापूका २०-८-३२ वचन कैसे भंग हो ? बापू तो वचन दे चुके हैं कि हमारी तरफसे यह बात कहीं भी बाहर नहीं जायगी । अिसलिओ चाके बेवफा कैसे हो सकते हैं ? वल्लभभाीको बड़ी परेशानी थी। आज बापने बहुत पत्र लिखे । आश्रमकी डाक बहुत सारी लिखी । अिसमें छगनलाल जोशीके नामका पत्र, हालाँकि वह सत्याग्रहके शाश्वत सत्र अपस्थित करता है, परन्तु अनकी मौजूदा मनोदशाका भी सूचक है । (जोशीके पत्रमें आसपासके वातावरणसे पैदा होनेवाली निराशा और बहुत कामोंको पूरा करने की अधीरता थी।) वह पत्र यह है : "शरीर बिगाड़नेके की कारणोंमें अक कारण अधीरता है । पहले मन अधीर होता है, फिर शरीर होता है । मगर 'अधीरा सो बावरा धीरा सो गंभीर' यह अनुभव वाक्य है । दुनिया जल झुठे तो क्या हम असे अधीरतासे ठंढी कर सकते हैं। हमें ठंढी ही कहाँ करनी है ? जब बड़ी आग लगती है,
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