हैं, अनेक प्रकारके विचार करते हैं । अनमेंसे बहुत तो याद भी नहीं रहते । वह सब विचारोंका व्यभिचार कहलाता है । जैसे मामूली व्यभिचारसे अिन्सान अपने शरीरकी ताकतको बर्बाद करता है, वैसे ही विचारोंके व्यभिचारसे मानसिक शक्तिका नाश करता है । और जैसे शारीरिक कमजोरीका मन पर असर पड़ता है, वैसे ही • मनकी अशक्तिका असर शरीर पर होता है । अिसीलिओ मैंने ब्रह्मचर्यकी व्यापक व्याख्या करके निरर्थक विचारोंको भी ब्रह्मचर्यका भंग ही माना है । ब्रह्मचर्यकी संकुचित व्याख्या करके हमने असे ज्यादा मुश्किल चीज बना दिया है। व्यापक व्याख्याको मानकर हम अिन्द्रिय मात्रका, ग्यारहों अिन्द्रियोंका संयम करें, तो अक अिन्द्रियको काबूमें रखना मुकाबलेमें बहुत ही आसान हो जाता है। तुम भीतर भीतर जैसा मानते दीखते हो : बाह्य कर्म करनेमें आन्तरिक शुद्धिका अवलोकन रह जाता है या कम होता है । मेरा अनुभव अिससे बिलकुल अलटा है । बाहरी काम भीतरी शुद्धिके बिना निष्काम भावसे हो ही नहीं सकता । अिसलिमे ज्यादातर आन्तरिक शुद्धिका हिसाब बाह्य कमकी शुद्धिसे ही लगाया जाता है । जो बाह्य कर्मके बिना भीतरी शुद्धि करने लगेगा, असे भुलावे में पड़ जानेका पूरा डर रहता है । जिस तरहके अदाहरण मैंने बहुत देखे हैं। अक मामूली मिसाल ही देता हूँ। मैंने देखा है कि जेलमें बहुत साथियोंने तरह तरहके अच्छे निश्चय किये । मैंने यह भी देखा है कि बाहर निकलने पर वे निश्चय पहले ही सपाटेमें खतम हो गये । जेलमें तो अन्होंने यही मान लिया था कि उनका निश्चय कभी नहीं बदलेगा, भीतरी शुद्धि पूरी हो गयो है, अवलोकन शान्तिसे हुआ है और प्रार्थनामें अकाग्रता आ गयी है। मगर चारदीवारीसे निकलते ही यह सब काफूर होते मैंने देखा है । गीताजीके तीसरे अभ्यायका पाँचवा श्लोक बहुत ही चमत्कारिक है । भौतिकशास्त्री बता चुके हैं कि अिसमें बताया हुआ सिद्धान्त सर्वव्यापक है। अिसका अर्थ यह है कि कोमी भी आदमी अक क्षण भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता। कर्मका अर्थ है गति, और यह नियम जड़-चेतन सबके लिओ लागू । मनुष्य अिस नियम पर निष्काम भावसे चलता है, तो यही असका ज्ञान और यही असकी विशेषता है । अिसीकी पूर्तिमें श्रीशोपनिषद्के दो मन्त्र हैं, वे भी अितने ही चमत्कारी हैं । बुद्ध भगवानकी आलोचना मेरे जैसा क्या करेगा ? और मैं तो सुनका पुजारी हूँ। मगर रचना बुद्ध भगवानने की थी या अनके पीछेवालोंने ? कुछ भी हुआ हो, मगर जो संघ बने वे जिस सर्वव्यापक नियमके अनुसार जड़वत् हो गये और अन्तमें आलसीके नामसे मशहूर हुमे । आज भी मीलोनमें, ब्रह्मदेशमें और तिब्बतमें बौद्ध साधु ज्ञानहीन और आलस्यके ही पुतले पाये जाते हैं । हिन्दुस्तानमें भी संन्यासो नामसे पुकारे जानेवाले साधु ३७४
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