पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/१४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१२२
महाभारतमीमांसा

१२२ ॐ महाभारतमीमांसा, प्रकारके नाम थे। मधु-माधव इत्यादि स एव द्वादशवार्षिकादिषु गवामयनादिषु नामोंकी तरह अरुण-अरुणरजा आदि उपयुज्यते, "त्रीणि शतानि पंचषष्ठिदिनानि दूसरे नाम थे। ये नाम तैत्तिर्गय ब्राह्मणमें पञ्चदश घटिका इत्यादि सौरसंवत्सर आये हैं । मधु श्रादि नाम तो ऋतुवाचक मानं स्मार्ने । वर्धापनादौ तु चांद्रेण ।" हैं, पर चान्द्र वर्ष ऋतुओंके अनुकूल नहीं अर्थः-"सावन वर्ष ३६० दिनोंका होता है । इसलिये, दूसरे नाम चान्द्र-वर्षके है । वह गवामयन इत्यादि सत्रों में उप- महीनोंके होंगे। जब अकेला सौर वर्ष प्रच- योगी होता है । सौर वर्षका मान ३६५ लित हुआ, उसी समय चैत्र, वैशाख श्रादि दिन ओर १५ घड़ी है । यह स्मार्त को नामोंका प्रचार हुआ। चान्द्र वर्षके अप्रच- अर्थात् स्मृतिमें कहे हुए कौके सम्बन्ध- लित हो जाने पर चान्द्र मासोके पहलेके में काम आता है और वर्धापन (ब्याज नाम भी स्वभावतः लुप्त हो गये। यहाँतक के हिसाब करने आदिमें)चांद्र वर्ष उप- कि अब उनका पता भी लोगोंको नहीं है। योगी होती है ।" चतुर्धरने यह बात घान्द्र वर्षके अप्रचलित होने पर चैत्र अपने समयके सम्बन्धमे बतलाई है; वह मादि नामोंका प्रचार हुआ । दीक्षितने कुछ भारती युद्ध के समयकी नहीं है। बतलाया है कि इन नामोंका प्रचार कबसे तैत्तिरीयमें कहा किगवामयनादि समोर दुना। इनका प्रचार सन् ईसवीके पूर्व लग-' भी चांद्र वर्ष मानना मना नहीं है । ३६५: मग २००० के समय हुआ (दीक्षितः पृष्ठ दिनोंका सौर वर्ष वेदांग ज्योतिषको बिल- १०२). अर्थात २०००केबाद चान्द्र वर्ष अप्र-कल मालम ही नहीं। परन्त चतुर्धरके चलित हो गया। भारती युद्ध चान्द्र वर्षके : मतपर मुख्य आक्षेप यह है कि जब ऐसा प्रचलित रहते समय हुश्रा: अतएव उसका निश्चित नियम था कि श्रोत-धर्ममें साधन समय सन् ईसवीके पूर्व २००० के पहले वर्ष तथा ब्याज, यत और व्यवहारोंमें होना चाहिये । वर्तमान भारतमै चैत्र चान्द्र वर्षको मानना चाहिये, तो क्या वह बैशाख आदि महीनोंके नाम पाये जाते नियम दुर्योधनको मालूम नहीं था? और हैं। परन्तु महाभारतका समय सन् ईसवी- क्या द्रोणको भी मालूम न था ? ऐसा के लगभग ३०० वर्ष पहलेका है : अर्थात नियम होता तो झगड़ा किस बातका उस समय चैत्र वैशाखादि नामोंका ही था? सारांश, चतुर्धरका किया हुआ अर्थ प्रचार था और पहलेके सब नामोंके मान्य करने योग्य नहीं है। यही मानना अप्रचलित हो जानेके कारण वे महा. पड़ता है कि पाण्डव चान्द्र-वर्ष मानते थे भारतमें नहीं पाये जाते। और दुर्योधनादि कौरव सौर-वर्ष मानते थे। हमने यह मानकर ही भीष्मके वचन- ऊपरके प्रमाणसे भी भारतीय युद्धका का आदर किया है कि पाण्डव भारतीय अत्यन्त प्राचीन कालमें होना सिद्ध युद्धके समय लौकिक व्यवहारमें चान्द्र होता है। वर्षका उपयोग करते थे । परन्तु अब हमें यह देखना चाहिये कि चतुर्धर टीका- । क्या पाण्डवोंने वनवासकी शर्त कारने दूसरी तरहसे उसका जो अर्थ सम- चान्द्र-मानसे पूरी की ? झानेका प्रयत्न किया है, वह कहाँसक ठीक इसी विषयसे सम्बन्ध रखनेवाला है। यह कहता है:- . एक प्रश्न यह है, कि पाण्डष वनवासके "पण्याधिकशतत्रयदिनात्मा सावनः । लिये कब गये और कब प्रकट हुए? इस