पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/१५९

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  • भारतीय युद्धका समय *

१३३ को निरयण समझना चाहिये । यहाँ यह है। ज्येष्ठाको सच्चा निरयण और मधाको बतला देना चाहिये कि सायन और निर- सायन मानना चाहिये ( इसमें भी एक यण नक्षत्र कैसे होते हैं और उनकी कल्पना नक्षत्रकी भूल होती है) क्योंकि पुनर्वसुको कैसे की जाती है। प्रत्यक्ष आकाशमें जो अश्विनी कहने पर अनुराधाको मघा नक्षत्र दिखाई पड़ते हैं वे गतिरहित हैं। उन्हें कहना पड़ता है। मङ्गल ज्येष्ठामें वक्री निरयण कहते हैं। आजकल इनका पार- होकर अनुराधाकी ओर जाता था। श्रवण म्भ-स्थान अश्विनी है। ये निरयण अश्विनी, पर जो गुरु बतलाया गया है, वह निरयण भरणी आदि नक्षत्र आकाशमें प्रत्यक्ष देख है और विशाखाके पास जो बतलाया ही पड़ते हैं: परन्तु सम्पात बिन्दुकी गति गया है, वह सायन है । सारांश यह है पीछेकी ओर है, अर्थात् यद्यपि नक्षत्रोंकी कि लगभग सात नक्षत्रोंको एक दम कोई चाल नहीं है तथापि प्रारम्भ-स्थानकी | छोड़कर पीछेका दूसरा नाम बतलाया चाल है। प्रारम्भ-स्थान जैसे जैसे पीछे गया है । इससे मोड़कन सम्पातका हटे, वैसे ही वैसे प्रारम्भके नक्षत्रको पुनर्वसुमें होना मानकर गणित करके सायन कल्पित पीछेकी ओर ले जाना बतलाया है कि यह समय सन् ईसवीके चाहिये । उदाहरणार्थः-अब रेवतीमें लगभग ५००० वर्ष पहले पाता है। सम्पात रहे तब रेवतीको सायन अश्विनी परन्तु यह कल्पना सब नक्षत्रों के कहना चाहिये, और कहते भी हैं । गशियाँ सम्बन्धमें ठीक नहीं उतरती; यही नहीं, सायन और निग्यण दोनों तरहकी होती हैं। निरयण राशियाँ श्राकाश-स्थितिसे मेल बल्कि वह ऐतिहासिक दृष्टिसे भी गलत है। इसमें अनेक ऐतिहासिक गलतियाँ हैं। रखती हैं, परन्तु सायन मेषके पीछे चले जानेके कारण श्राकाशके मेघसे मेल नहीं पहली गलती यह है कि पूर्वकालमें नक्षत्र मिलेगा। यह मान लेना चाहिये कि अश्विनीस शुरू नहीं होते थे-कृत्तिकासे कल्पित सायन नक्षत्र और प्रत्यक्ष निरयण शुरू होते थे। वेदों और वेदाङ्ग ज्योतिषमें नक्षत्र दोनों प्रचलित रहे होंगे, इसी लिये तो वे कृत्तिकासे ही शुरू होते हैं। सौतिके नक्षत्रोंके आधार पर यह दुहरी ग्रहस्थिति महाभारतकालमें भी नक्षत्र कृत्तिकादि थे, बतलाई गई है। इससे यह कल्पना की जा अर्थात् कृत्तिका पहला नक्षत्रथा; अश्विनी सकती है कि भारत-युद्धकालमें सम्पात न था । दसरी भूल-यह बात ही पहले पुनर्वसुमें रहा होगा । इसका दूसरा ज़माने में मालूम न थी कि अयनबिन्दुकी कल्पित सायन नाम अश्विनी हो सकता गति पोछेकी ओर है।महाभारतकालमें तो है। उस समय चन्द्रमा मृगमें, और मघामें मालूम थी ही नहीं, परन्तु आगे लगभग भी, बतलाया गया है। इनमेंसे मघा सञ्चा ८०० वर्षोंके बीत जाने पर होनेवाले वराह- निरयण नक्षत्र और मृग कल्पित सायन | मिहिरको भी यह बात मालूम न थी। होगा । सम्पातके पुनर्वसुमें रहनेसे, सायन और निरयणका भेद अर्वाचीन उसे यदि अश्विनी कहे, नो (पुनर्वसु, कालका है । सन ईसवीके लगभग १५० पुष्य, आश्लेषा, मघा) मघा चौथा और वर्ष पहले हिपार्कसने अयनगतिका पता (अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहणी, मृग) पहलेपहल लगाया। फिर यह बात हिन्दु- मृग पाँचवाँ होता है। माल एक बार मघा- स्थानमें आर्य ज्योतिषियोको मालूम हुई में और दूसरी बार ज्येष्ठामें बतलाया गया और उन्होंने उसे अपने ज्योतिष-गणितमें