पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/१६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१३४
महाभारतमीमांसा

१३४ ॐ महाभारतमीमांसा 8 सम्मिलित कर लिया। तीसरी गलती प्रयत्न किया था, परन्तु वह सिद्ध न हुआ। इस बातको हर एक आदमी मानेगा कि | श्रीयुत शङ्कर बालकृष्ण दीक्षितका यह मत यदि एक ही समयमें सायन और निरयण | उनके ग्रन्थसे मालूम होता है कि पाण्डवों- दो नक्षत्र एक होनामसे प्रचलित हो और के समयकी सच्ची ग्रहस्थिति कर्ण और उनके लिये कोई अलग चिह्न अथवा नाम | व्यासके भाषणोमे है। परन्तु उन्होंने उन न हों, तो बड़ी भारीगड़बड़ हो जायगी। भाषणोके आधार पर समय निश्चित करने जब कि केवल नक्षत्र ही बतलाया गया है, का प्रयत्न नहीं किया है, क्योंकि उन्होंने तब यह कैसे निश्चित किया जाय कि अपना स्पष्ट मत लिख दिया है कि उस वह सायन है अथवा निरयण ? क्या ग्रहस्थितिका मेल ठीक ठीक मिलाया नहीं प्रत्येक आदमी अपनी अपनी कल्पनासे जा सकता (भारती ज्यो० पृष्ठ १२४)। निश्चित कर लिया करे ? ऐसी गड़बड़ कभी क्षमा करने योग्य न होगी। यह वेधों के द्वारा भिन्न ग्रहस्थितिकी मामली बात है कि व्यास और सौति उपपत्ति। सरीखे ग्रन्थकार, नक्षत्र बतलाते हुए, पाठकोको बार बार भ्रममें न डालेंगे। यह प्रश्न फिर भी अबतक बाकी सारांश, जब कि महाभारतकालमें सायन : रह गया कि यदि महाभारतमें बतलाई और निरयण नक्षत्रोंका ही होना सम्भव हुई ग्रह-स्थितिको काल्पनिक मान लें. नहीं है, और यदि सम्भव हो तो उस तो काल्पनिक ग्रहस्थिति बतलाते हुए समय उनका प्रारम्भ अश्विनीसे नहीं भी कोई समझदार श्रादमी दो दो तीन होताथा,तब यही स्पष्ट है कि ऊपर दी हुई तीन नक्षत्रों पर ग्रहोंकी स्थिति कैसे बतला- सारी दलील ही गलत है। इसके सिवा, वेगा? यह नहीं माना जा सकता कि सब नक्षत्रों की स्थिति इस तरहसे ठीक इस प्रश्नका स्पष्टीकरण हो ही नहीं नहीं जमती। विशेषतः शनिकी स्थिति सकता । टीकाकारने इस स्थितिको वेध रोहिणी, पूर्वाफाल्गुनी और विशाखा, इन की कल्पनासे मिलाकर दिखानेका प्रयत्न तीन नक्षत्रों पर बतलाई गई है। इसमें किया है, और हमारा मत है कि यह सायन-निरयणका भेद बिलकुल बतलाया प्रयत्न अनेक अंशोंमें सफल हुआ है। हम ही नहीं जा सकता। यदि रोहिणीको यहाँ उसका कुछ वर्णन करनेका साहस सायन मान भी लें, तो वह अश्विनीसे करते हैं । यह विषय मनोरंजक और चौथा ही होता है। पुनर्वसुसे पूर्वाफल्गुनी पाठकोंके सन्मुख उपस्थित करने योग्य पाँचवाँ होता है। इसी प्रकार जो तीसरा है। टीकाकारने इस विषयको समझाने- नक्षत्र बतलाया गया है कि मङ्गल वक्रानु- के लिये नरपतिविजय नामक ज्योतिष- वक्र होकर श्रवण पर वक्र होगया, उसकी ग्रन्थसे "सर्वतोभद्रचक्र" लिया है। यह उपपत्ति मालूम नहीं होती। इस कल्पना पुराना ग्रन्थ है और इसका उपयोग यह पर अर्थात् सायन-निरयण-नक्षत्र-कल्पना देखने के लिये किया जाता है कि युद्ध में पर इस तरहके आक्षेप होते हैं, इसलिये जीत होगा या हार । इस चक्रमें चार कहना पड़ता है कि यह कल्पमा मान्य भुजाएँ हैं। प्रत्येक भुजामें कृत्तिकास नहीं हो सकती । ग्वालियरके श्रीयुत सात सात नक्षत्र रखे गये हैं और दो पिलाजी कृष्ण लेलेने भी इसी तरहका रेखाएँ अधिक कल्पितकर चारों कोनों में