- महाभारतमीमांसा *
भी थी । द्रौपदीके स्वयम्बरमें जिस समय और सबके नैसर्गिक अधिकार भी एकसे कर्ण धनुष बाण लेनके लिए उठा, उस ही थे: फिर हिन्दुस्तानमें वर्ण-व्यवस्था समय द्रौपदीने स्पष्ट कह दिया कि मैं कैसे उठ खड़ी हुई और वह अन्यान्य सूतके साथ विवाह न करूँगी। यानी उस देशोंमें क्यों नहीं हुई ? हमें पहले इसी समय सूत एक अलग जाति थी और प्रश्नका विचार करना चाहिये। उसका दर्जा घटिया था। मतलव यह कि वर्ण-व्यवस्था पुरानी है। महाभारतके समय चार वर्णोके सिवा और अधिक वर्ण तथा जातियाँ उत्पन्न हो गई. कुछ लोगोंका यह मत है कि ब्राह्मण थीं। ये जातियाँ उत्पन्न कैसे हई? यह लोगोंने, कुछ समय पूर्व, लचपनसे ईरा- महत्वका प्रश्न है। मेगास्थिनीज़ने चन्द्र- नियोकी व्यवस्थाका अनुकरण करके गुनकेसमय जो ग्रन्थलिख रखाथा, उसमें हिन्दुस्थान में यह व्यवस्था प्रचलित कर उन दिनों हिन्दुस्थान में सात मुख्य जातियों- दी: और मनुस्मृति श्रादि ग्रन्थों में इस के रहनेका कथन है । इसलिप. प्रारम्भमें व्यवस्थासे सम्बन्ध रखनेवाले नियम हमें कोई ऐसा लक्षण स्थिर कर लेना घुसेड़ दिय : और मज़ा यह कि ऋग्वेदमें चाहिए जिससे वर्ण या जातिका मुख्य भी पीछेसे ऐसा नकली सूक्त मिला दिया खरूप मालूम हो । बारीकीसे समाज- जिसमें चातुर्वर्य-सम्बन्धी उल्लेख है। व्यवस्थाका निरीक्षण करनेवालेके ध्यानमें किन्तु यह मत बिलकुल झूठा है । जिस यह लक्षण चटपट पा सकता है। मेगा- ! पुरुष-सूक्तमें विराट पुरुषके चार अव- स्थिनीज़ने भी यह लक्षण लिखा है । वह यवोंसे चार वर्षों के उत्पन्न होनेकी बात कहता है-"कोई जाति अपनी जातिके कही गई है, उस सूक्तका ऋग्वेदमें पीछे- बाहर दूसरी जातिके साथ विवाह नहीं से मिलाया जाना सम्भव नहीं । कारण कर सकती । अथवा अपनी जातिके गेज़- यह है कि ऋग्वेदके प्रत्येक सूक्त और गारके सिवा दुसग पेशा भी नहीं कर · सूक्तोंकी संख्या गिनी हुई है और शत- सकती।" अर्थात् , जाति दो बातोंके घेरेमें पथ श्रादि ब्राह्मण-ग्रन्थों में वह कह दी गई है। एक बात शादी अथवा विवाहकी है। हम पहले सिद्ध कर चुके हैं कि इस और दूसरी गेज़गारकी । इन दोनों अभेद्य रीतिसे ऋग्वेद-ग्रन्थ ब्राह्मण-ग्रन्थों- धनोंके बिना जातिका पूर्ण रूप ध्यानमें के पहले यानी भारती यद्धके पहले ही- 'न आवेगा। ये बन्धन, कुछ बातोम, अप- : सन् ईसवीसे पूर्व ३००० वर्षके लगभग- वाद रूपसे हिन्दुस्थानमें पुराने ज़मानेमें कायम कर लिया गया था। सारांश यह शिथिल रहते थे। ये शिथिल क्यों और कि वर्ण-भेदकी कल्पना ब्राह्मणोंने पीछेसे कैसे रहते थे, इसका विचार आगे होगा। उत्पन्न नहीं कर दी है, वह तो भारतीय जातिका अर्थ उक्त बन्धनोंके द्वारा किये आर्योंके श्रादि इतिहाससे ही चली श्रा हुए समाजके भाग है: अर्थात् न तो एक रही है। यही बात माननी चाहिये । उक्त जातिवाले दूसरी जातिवालोंसे बेटी- मतका खराडन करनेके लिये इतनी दूर व्यवहार न करें और न दूसरोका पेशा : जानेकी भी कोई ज़रूरत नहीं । 'वदतो करने लग जायँ, इसी कारण जातियोंका व्याघानः-यानी जो कह रहे है वही अलगाव स्थिर रहा । सबका धर्म एक गलत है-इस न्यायसे पहले ही यह प्रश्न था, सब एक ही देश हिन्दुस्थान में रहते थे ' होता है कि-"ब्राह्मणोंने वर्ण-व्यवस्खा