पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/२२६

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२००
महाभारतमीमांसा

२०० ॐ महाभारतमीमांसा माश्रम-व्यवस्थाका इतिहास इसके विप- प्राश्रम-व्यवस्थामें धीरे धीरे न्यूनता पा रीत है। आश्रम-व्यवस्था पहले अच्छी गई हो। महाभारतमें श्राश्रम-व्यवस्थाका स्थितिमें थी, फिर धीरे धीरे उसका ह्रास जो वर्णन है, पहले उसीका उल्लेख किया हो गया; और अब तो वह बहुत कुछ लुन- जाता है। प्राय है। देखना चाहिए कि महाभारतके आश्रम चार है-ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ, समय उसकी कैसी स्थिति थी। वानप्रस्थ और संन्यास । सात आठ साल- जिस तरह वर्ण-व्यवस्थाका बीज प्रत्येक की अवस्थामें लड़केका, उपनयन संस्कार ममाजमें होता है, उसी तरह बहुधा प्रत्येक द्वारा, पहले आश्रममें प्रवेश होता है। इस समाजमें आश्रम-व्यवस्थाका भी बीज आश्रममें रहकर विद्यार्जन करना होता रहता है। हर एक समाजमें पेशेके अनुसार है। इस सम्बन्ध विस्तृत विवेचन आगे अलग अलग दर्जे होते हैं: और बहुत चलकर शिक्षा-विषयमें किया जायगा। करके अपने अपने दर्जे में ही शादी-ब्याह ! यहाँ पर इतना कह देना काफ़ी है कि होते हैं। किन्तु ऐसी वर्ण-व्यवस्थाको गुरुके घर रहकर विद्यार्थी विद्याभ्यास अभेद्य धार्मिक बन्धनका स्वरूप प्राप्त नहीं करे और भिक्षासे निर्वाह करे । बस, यही होता । इसी तरह प्रत्येक समाजमें यह ! नियम था । बारह अथवा और भी अधिक कल्पना भी रहती है कि छोटी अवस्थामें। वर्पतक विद्याभ्यास किया जाता था। मनुष्य विद्या पढ़े, तरुण अवस्थामें गृहस्थी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीनों वेद-विद्या सँभाले और बढापेमें ग्रहस्थीके झगडोसे पढकर अपना अपना हुनर सीखते थे। निवत्त होकर केवल ईश्वरका भजन और बारह वर्षके अनन्तर ब्रह्मचर्य सम्पूर्ण चिन्तन करे। किन्तु यह कल्पना धार्मिक ' कर, गुरुकी श्राशासे गृहस्थाश्रम स्वीकार बन्धनका चोला नहीं पहन सकती। पार्योन ' करनेका नियम था। इस गृहस्थाश्रमका इस धारणाको भी अपने समाजमें स्थिरता मु'य नियम यह था कि विवाह करके प्रदान कर दो और वर्ण-व्यवस्थाको तरह प्रत्येक मनुष्य अपनी अपनी गृहस्थीका प्राश्रम-व्यवस्था धर्मको बात मान ली गई। काम करे, और अग्निको सेवा तथा अतिथि- यह व्यवस्था तीन वर्गों के ही लिए थी, को पूजा करके कुटुम्बका पालन करे। अर्थात् आर्य लोग ही इसके पाबन्द थे। गृहस्थाश्रमके कर्तव्य विस्तारसे कहे गये पहले यह निश्चय किया गया कि चारों है। उनका उल्लेख भागे होगा । गृहस्थाश्रम प्राश्रमांका पालन प्रत्येक आर्यवर्णीको सम्पूर्ण करके गृहस्थी बाल-बच्चोंको सौंप करना चाहिये।ार्य लोगोंने अपने समाज- 'दे और श्राप वनमें चला जाय । स्त्री को अत्यन्त उन्नत अवस्थामें पहुँचानेके जीवित हो तो उसे साथ लेता जाय और लिए जो चतुराईके यत्न किये, उन्होंके । वनमें रहकर चौथे पाश्रममें जानेके लिये फल ये आश्रम हैं। किन्तु इन आश्रमोंका धीरे धीरे तैयार होता रहे । यह वानप्रस्थ यथा-योग्य रीतिसे पालन करनेके लिये अर्थात् वनमें प्रस्थित मनुष्यको स्थितिका आध्यात्मिक निग्रह और सामर्थ्यको श्राव- ' तीसरा आश्रम है। और, इस प्रकारसे श्यकता है। इस कारण, प्रारम्भमें यद्यपि जब कुछ वर्षों में दैहिक क्लेश सहने के लिये यह व्यवस्था अत्यन्त लाभदायक हुई, उपनिषदोंमे भी यही मर्यादा देख पडती है, "भ इ तथापि आश्चर्य नहीं कि धीरे धीरे इस द्वादशवर्ष उपेत्य चतुर्विशतिवर्षः मान वेदानधान्य भहा- आध्यात्मिक सामर्थ्यके घटते रहनेसे मना "या" छा० ६ मं० ५१० ६