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महाभारतमीमांसा

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  • महाभारतमीमांसा

- - लिये बलाथा और कितने ही ब्राह्मण तथा केवल परमेश्वर-चिन्तन करनेका काम क्षत्रिय उसका यथा-शास्त्र पालन किया अनेक भारती श्रार्याने करके, वेदान्तके करते थे। अब हमवानप्रस्थका विचार करते सदृश तत्त्वज्ञानका उपदेश संसारको हैं। वनमें जाने और तपश्चर्या करनेका किया है। बढापेमें संसारमें ही चिमटेरह- अधिकार तीनों वर्गों को था और तीनों कर-अनेक संसारी विषय-वासनाओंमें वर्णीवाले वानप्रस्थ हुआ करते थे। धृत- देह दुर्बल हो जाने पर भी-मनको लोटने राष्ट्रके घनमें जानेका वर्णन है। कहा देनेकी अपेक्षा, उन्हें प्रायुका बचा हुआ गया है कि धृतराष्ट्र अपनी पत्नी और अंश इन्द्रियदमन करके वेदान्तविचारोंमें कुन्तीके साथ वनमें तप करने गये थे। बिताना कहीं अधिक अच्छा जंचता था। रामायणमें एक वानप्रस्थ वैश्यका भी । इस मतलबसे श्राोंने संन्यास आश्रमको वर्णन है। उनमें जाकर ब्राह्मणोंके तप- प्रचलित किया था । प्राच्य और प्रतीच्य चर्या करते रहनेके सैकड़ों उदाहरण महा- सभ्यतामें जो फ़र्क था और है, वह यही भारतमें हैं । गृहस्थीका अनुभव हो चुकने है। हिन्दुस्थानमें जिस तरह केवल भिक्षा पर और उससे छुट्टी पाकर वनमें जाने- माँगकर गुज़र करनेवाले और वेदान्त- की इच्छा होना साहजिक ही है: और . ज्ञानका विचार करनेवाले संन्यासी सैकड़ों ईश्वरने जिनको अच्छी उम्र दी है उनके पाये जाते हैं वैसे और कहीं नहीं पाये लिये ही वनमें जाना सम्भव है। अर्थात् जाते. न तो पारसियों में हैं और न युरोपि- वानप्रस्थों की संख्या सदा थोड़ी रहेगी। यन लोगों में ही। प्राचीन कालसे ही संन्या- तथापि तीनों वर्णोंको वानप्रस्थका अधि- साश्रम भारती आर्य-समाजका विशेष कार था: और यह भी कह सकते है अलवार है। श्रारम्भमें इस आश्रमका कि महाभारतके समयतक वानप्रस्थ लोग अधिकार तीनों वर्गों को था । गृहस्थीके होते थे। महाभारतसं यह स्पष्ट नहीं ! दुःखसं झुलसे हुए शद्रको भी, वेदान्त- होता कि श द्रको वानप्रस्थकी मनाही थी: ज्ञानका आश्रय लेकर, अपना अवशिष्ट किन्तु शान्तिपर्वके ६३वें अध्यायमें कह जीवन सार्थक कर लेनेकी इच्छा होना दिया गया है कि राजाकी आज्ञासे शुद्रको स्वाभाविक है। प्राचीन कालमें शूद्र भी सभी आश्रमोंका अधिकार है। रामायणमें, वेदान्त-ज्ञानके अधिकारी थे, उन्हें चौथे तपश्चर्या करनेवाले शूद्रके रामके द्वारा श्राश्रमका अधिकार था । परन्तु आगे दंडित होनेकी कथा है। इससे प्रतीत चलकर संन्यास आश्रमके कठिन धर्मका होता है कि श द्रोंको इस आश्रमका अधि- पालन ब्राह्मणोंके सिवा औरॉके लिये कारन था। सच तो यह है कि श्राश्रमधर्म · एक तरह असम्भव होने लगा: इस तीन वर्षों के लिये ही कहे गये हैं। अब ' कारण प्रश्न हुआ होगा कि अन्य वौँको चौथे आश्रमका विचार किया जाता है। संन्यास लेनेका अधिकार है या नहीं। संन्यास किसके लिए विदित । शान्तिपर्वके ६१ वें अध्यायमें कहा है कि ' संन्यास लेनेका अधिकार ब्राह्मणोंको ही भारती आर्योंकी मानसिक प्रवृत्ति है। परन्तु ६३ व अध्यायमें कहा गया है सार-स्याग प्रथोत्संन्यासकी कि-"वह शद्र भी तीन वर्णोकी ही भोर है। इस सम्बन्धमें, उनमें और योग्यताका है और उसके लिये सब प्राधम पाभात्यों में बड़ा फ़र्क है। विरक्त होकर, विहित हैं, जो पुराण आदिके द्वारा वेदान्त पहल