पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/२२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
  • प्राश्रम-व्यवस्था ।

२०३ - सुननेकी इच्छा करता हो, त्रिवर्ण-सेवा रूपी श्राशा मिल जाने पर और सब काम हो स्वकर्म यथाशक्ति कर चुका हो, जिसके चुकने पर फिर अधिकार है। "प्राश्रमा सन्तान हो चुकी हो और गजाने जिसको विहिताः सर्वे वर्जयित्वा निराशिषम् । प्राज्ञा दे दी हो ।" सारांश "जिस शूद्रने भैयचों ततःप्राहुस्तस्य तद्धर्मचारिणः।। स्वधर्मका प्राचारण किया है उसके लिये, तथा वैश्यस्य राजेन्द्र, राजपुत्रस्य चैव वैश्य और क्षत्रियके लिये संन्यासाश्रम हि" ॥१४॥ अर्थात् राजपुत्र अथवा क्षत्रिय- विहित है।" यह अचरजकी बात है कि के लिये भक्ष्यचर्य संन्यासाश्रमकी कोई शूद्र और वैश्यको राजाकी आज्ञा प्राप्त रोक टोक नहीं। वैश्यके लिये "कृतकृत्यो करके संन्यासाश्रम लेनेको कहा गया है। वयोतीतो राक्षः कृतपरिश्रमः । वैश्यो "क्षत्रियको भी तब संन्यास लेनेमें कोई यच्छेदनुशातो नृपेणाश्रमसंश्रयम् ।" हानि नहीं जब कि वह सब कर्म करके इसके द्वारा राजाकी श्राशा आवश्यक पुत्रको अथवा और किसी अन्य गोत्री बतलाई गई है। परन्तु क्षत्रियको तो इसकी क्षत्रियको राज्य अर्पण कर दे। वेदान्तको भी ज़रूरत नहीं। आगे बतला दिया गया सुननेके लिये ही राजा भिक्षावृत्तिका है कि राजाको चतुर्थ श्राश्रम कब लेना अवलम्ब कर, सिर्फ भोजन-प्रामिकी चाहिये । “राजर्षित्वेन गजेन्द्र भैच्यचर्या इच्छासे उसको इस वृत्तिका अवलम्बन सेवया । अपेतगृहधर्मोऽपि चरेजीवित न करना चाहिये । टीकाकारका कथन है काम्यया ॥” इस श्लोकमें राजाके लिये कि "संन्यासाश्रम रूपी कर्म ब्राह्मणों को भैच्यचर्या मुक्त कर दी गई है। तथापि छोड़ अन्य क्षत्रिय आदि तीनों वर्गों के यह भी वर्णन है कि राजधर्म अर्थात् लिये नित्य नहीं, प्रत्युत अन्तःकरणके प्रजापालनधर्म सबमें श्रेष्ठ है; इस धर्मको लिये विक्षेप करनेवाले कर्मका त्याग करनेवाले राजाको सब आश्रमोका फल कर देना काम्य-संन्यास है और यही मिलता है । यह वर्णन बहुत ही ठीक है। उनके लिये विहित है।" "महाश्रयं बहुकल्याणरूपं क्षात्रं धर्म यह विषय महत्त्वपूर्ण किन्तु वादग्रस्त नेतरं प्राहुराः । सर्वे धर्मा राजधर्म- है. इसलिय मल वचनों समेत यहाँ उद्धत प्रधानाः सर्व वर्णाः पाल्यमाना भवन्ति ॥ करने लायक है । शान्तिपर्वके ६१ वे इत्यादि राजधर्मकी स्तुति ठीक ही है। अध्याय प्रारम्भमें यह श्लोक है-“वान- समग्र वचनोंसे मालूम होता है कि प्रस्थं भैयचयं गार्हस्थ्यं च महाश्रमम् । महाभारतके समयतक यह नियम न हुआ ब्रह्मचर्याश्रमं प्राहुश्चतुर्थ ब्राह्मणवतम् ॥" ! था कि संन्यासका अधिकारी ब्राह्मण वर्ष इसमें भैयचर्यसे मतलब संन्यास है और ही है। तथापि जान पड़ता है कि उस वह चतुर्थ श्राश्रम ब्राह्मणोंके द्वारा वृत : समय ऐसा आग्रह उत्पन्न हो गया था, अर्थात् अङ्गीकृत है । इससे यह सिद्ध नहीं क्योंकि अनेक ब्राह्मण-संन्यासी शाख- होता कि वह औरोंके लिये वर्ण्य है । इसका मार्गविहित रीति द्वारा संन्यास-धर्म और अधिक खुलासा ६३ वें अध्यायमें स्वीकार करते और संन्यासके विशेष कर दिया गया है। "यश्च त्रयाणां वर्णाना- धर्मका पालन करते थे किन्तु अन्य वणों- मिच्छेदाश्रमसंवनम् । चातुराश्रम्पयुक्तांश्च के लोग योग्य गीतिसं संन्यास-आश्रम धमॉस्तान् शृणु पाण्डप ॥११॥ यह कह- ग्रहण न करके संन्यासका निरा वेष बना कर फिर कह दिया है कि शूद्रको राजाकी लत थे। और कितने ही शद तो अपनी