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- महाभारतमीमांसा
रियासतोमें विद्वान् ब्राह्मणोंको, सिर्फ या नहीं।" टीकाकारने प्रह्लासिका अर्थ विद्वत्ताके एवज़में, जो दक्षिणा देनेको सीखना-प्राचार्योंसे पढ़ना-किया है। रीति थी और है. वह इस प्रकार प्राचीन-इनसे प्रत्येक विषयके भिन्न भिन्न ग्रन्थ, कालसे ही देख पड़ती है । विद्या पढ़नेके और उन उन विद्याओंमें पारङ्गत ब्राह्मण लिये उत्तेजन देनेकी यह एक प्राचीन अथवा अन्य लोग होंगे ही। उनको आचार्य युक्ति है। उस समयकी परिस्थितिमें वह कहते थे । इसका अभिप्राय यह जान उचित थी, क्योंकि दक्षिणा लेना ब्राह्मणका पड़ता है कि इन प्राचार्योंसे राजा लोग कर्तव्य था: और इसके लिये उसने प्रयोग समेत विद्या सीखे । निदान युधि- विद्या पढ़ने-पढ़ानेका काम अङ्गीकार कर ष्ठिरके युद्धमन्त्रियोंके लिये अथवा कुमारों रखा था। यह एक प्रकारकी वर्तमान के लिये सब विद्याओंका पढ़ना श्राव- कालीन स्कालरशिप अथवा शिष्यवृत्ति- श्यक था । लगे हाथ आगे यह प्रश्न है- की चाल है। इसे दक्षिणान कहकर शिष्य- कश्चिदभ्यस्थते सम्यग ग्रहे ते भरतर्षभ । वृत्ति कहनेसे उसमें फर्क नहीं पड़ता। धनुर्वेदस्य सूत्रं वै यन्त्रसूत्रं च नागरम् ॥ नारदका प्रश्न यहाँ उल्लेग्व करने योग्य है। इसमें यहीसुझाया गया है कि युधिष्ठिर- कश्चित्ते सर्वविद्यामु गुणतोऽर्चा प्रवर्तते । के घरमें अर्थात् उसके अधिकारियों और ब्राह्मणानां च साधूनां तवनैःश्रेयसी शुभा ॥ कुमागेको धनुर्वेदका अभ्यास होना दक्षिणास्त्वंददास्येषां नित्यं स्वर्गापवर्गदाः। चाहिये। यह अभ्यास बड़े विद्यार्थियोंका है (६६ स. ५०) में गुणतः शब्द और उन उन विद्याओंके प्राचार्योंकी देख- से जान पड़ता है कि यह परीक्षा लेनेकी रेखमें वह होता है। "यन्त्रसूत्रं च नागरं" प्रथा होगी। यह निरी वेदविद्याकी शब्द स्पार्थ नहीं है: निदान ऐसे हैं जिनका ब्राह्मणोंकी परीक्षा न थी, किन्तु सभी अर्थ हमसे होने लायक नहीं: तथापि विद्याओकी थी और न सिर्फ ब्राह्मणमें उसमें यन्त्रका-युद्धोपयोगी यन्त्रका ज्ञान ही बल्कि इसमें साधु भी शामिल होते थे। आवश्यक कहा गया है। तब यह प्रकट साधु शब्दका अर्थ 'तत्वशानमें प्रवीण ही है कि शास्त्रीय ज्ञानके साथ इस मनुष्य' करना चाहिये। क्योंकि जिनका ! ज्ञानका मेल है और यह शान अभ्याससे आचरण साधुओंकासा निश्चित होगा वे बढ़ाया जाता था। साधु दक्षिणा क्यों लेने लगे। खैर, इसमें महाभारतके समय पुरुषोंकी शिक्षाकी सन्देह नहीं कि दक्षिणा अथवा स्कालर- : इस प्रकारको व्यवस्था थी। ब्राह्मण, क्षत्रिय शिप देकर समस्त विद्याओंकी शिक्षाकं ! और वैश्य तीनों वर्गों के लिये ब्रह्मचर्य अर्थात् लिये प्राचीन कालमें गजाकी श्रोग्से शिक्षा अावश्यक थी और उसमें यह सरली प्रोत्साहन मिलना था। थी कि वह धार्मिक आचरणका ही एक बाल्यावस्थामें जो विद्या सीखी जाती विषय था । विद्यार्थियोंके आचरणके है उसके सिवा अनेक विषय ऐसे भी सम्बन्धमे कड़े नियम प्रचलित थे। स्मृति होते थे जिन्हें प्रौढ़ मनुष्य सीखते थे। , ग्रन्थों में वे नियम मौजूद हैं। महाभारतमें उनकी शिक्षा सप्रयोग होतीथी।ये विषय वे विस्तृत रूपसे नहीं हैं परन्तु हैं वे बहुत खासकर युद्ध-सम्बन्धी थे । नारदके मार्मिक और उनमें ऐसी योग्यता थी प्रश्नमें यह पूछा गया है कि-"तुम स्वयं जिससे विद्यार्थी सशक्त, सद्धर्मशील और हस्तिसूत्र, रथसूत्र और अश्वसूत्र पढ़ते हो विद्या-सम्पन्न हो जाय । फिर यह शर्त