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महाभारतमीमांसा
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सातवाँ प्रकरण। भ्रूण-हत्याका पातक लगेगा " किन्तु इसके साथ ही उसने यह भी नियम कर दिया कि-"जो पुरुष अपनी स्त्रीको छोड़- कर अन्य स्त्रीसे समागम करेगा उसे भी विवाह-संस्था। । यही पाप लगेगा।" भार्यान्तथा व्युश्चरतः कौमारब्रह्मचारिणीम्। हिन्दू समाजकी परिस्थितिका दूसरा पतिव्रतामेतदेव भविता पातकं भुवि ॥ . महत्त्वपूर्ण अङ्ग विवाह-संस्था है। (आदि पर्व १२२ अ० २८ श्लोक) इस भागमें देखना है कि भारत-कालीन परन्तु आश्चर्यकी बात है कि हिन्दू- आर्योंमें विवाहकी कैसी और क्या रीतियाँ समाजमें इस दूसरे नियमका कुछ भी थी:महाभारतके समयतक उनकी उत्क्रान्ति ध्यान नहीं रखा गया। बहुधा इस बातकी कैसे हुई: और उस समय पति-पत्नीका किसीको ख़बर ही नहीं कि पुरुषको भी, सम्बन्ध कैसा था । वर्ण-व्यवस्थाका पहले स्त्रीकी ही तरह, व्यभिचारका पातक जो विचार किया जा चुका है, उसमें इस लगता है। धर्मशास्त्रमें प्राचीन ऋषियोंने षयका थोडासा दिग्दर्शन हश्रा है। जो नियम बना दिया है वह दोनोंके लिये किन्तु उस विवेचनकी अपेक्षा यहाँ विवे. ही एकसा उपयुक्त और न्याय्य है । चन विस्तृत है और कई बातोंके सम्बन्धमें प्राचीन कालमें इस प्रकारकी अनियन्त्रित मतभेदके लिये जगह है। श्रतएव इस व्यवस्था रहनेका दुसरा उदाहरण उप- प्रकरणमें इस विषयका सम्पूर्ण विचार निषा सत्यकाम जाबालका है । सत्य- किया गया है। काम जाबालकी माता यह न कह सकती सभी समाजोंकी उत्क्रान्तिकं इतिहास- थी कि यह लड़का किसका है। परन्तु में एक ऐसा समय अवश्य होना चाहिए उस लड़केने सच बात कह दी, इस कारण जब कि समाजमें विवाहका बन्धन बिल : ऋषिने अर्थात् उसके गुरुने निश्चित कर कुल हो ही नहीं। महाभारतमें एक स्थान दिया कि यह ब्राह्मणका बेटा है। इन दोनों पर वर्णित है कि किसी समय भारतीय उदाहरणोंसे यह नहीं माना जा सकता प्रार्य-समाजकी परिस्थिति इसी ढङ्गकी कि विवाहका बन्धन पूर्व कालमें बिल- थी। यह नहीं माना जा सकता कि यह । कुल था ही नहीं। और इसमें सन्देह ही है स्थिति निरी काल्पनिक है। श्रादि पर्वके कि इस प्रकारकी स्वाधीनता ऐतिहासिक १२वं अध्यायमें यह कथा है कि उद्दालक समयमें कभी थी भी या नहीं। तथापि ऋषिके पुत्र श्वेतकेतुने विवाहकी यह विवाहकी रीतिकी काल्पनिक उत्पत्ति- मर्यादा कायम की । उसकी माताका कथासे पाठक समझ सकेंगे कि हिन्दु- हाथ एक ऋषिने पकड़ लिया था, इससे स्तानी अायोंमें विवाहको जो अति उदात्त उसको गुस्सा आ गया । तभी उसने और पवित्र स्वरूप प्राप्त हो गया है उसकी यह मर्यादा खड़ी की। पशुओंमें न देख नींव प्रारम्भसे ही है। पड़नेवाली यह विवाह-मर्यादा मनुष्यों में उसी समयसे प्रचलित है। उसने मर्यादा नियोग। बाँध दी कि-"जो स्त्री पतिको छोड़ ऊपरकी कथा चाहे काल्पनिक हो किसी अन्य पुरुषसे समागम करेगी, उस चाहे न हो, परन्तु यह तो निर्विवाद है