विवाह-संस्था 1 * २३५ उदाहरणोसे यह बात शात होती है। भी भिन्न भिन्न विचारोंका उल्लेख है। सुभद्रा-हरण हो चुकने पर, अर्जुन और यहाँ उनका विस्तार करनेकी आवश्यकता सुभद्रो द्वारकामें लौटाये गये । वहाँ ब्राह्म- नहीं। जबतक प्रत्यक्ष पाणिग्रहण और विधिसे उनका विवाह होनेका वर्णन है।। सप्तपदी न हो गई हो तबतक लड़कीके इसका मुख्य स्वरूप दान है। इसो लिये दुसरं वरकी तजवीज़ हो सकती है, गान्धर्व-विवाह अथवा क्षात्र-विवाहसे यह बान सोलहों आने सच है। सिर्फ अर्थात् स्वयंवर होने या बाज़ी जीतन पर : शुल्क-दानसे वह कुछ वधृ नहीं बन जाती। जब विवाह होना पक्का हो जाता था तब भी बहुधा ब्राह्मविधि द्वारा विवाह हुआ विवाहके अन्य बन्धन । करते थे। अर्जुनके द्रौपदीको जीत लेगे । महाभारत-कालमें विवाहके सम्बन्ध पर और उसे अपने घर ले जाने पर भी जो और शर्ते थी, उनका यहाँ संक्षिप्त दुपदने दोनोंको अपने यहाँ बुलाकर उल्लेख किया जाता है। उनका विस्तृत उनका विधिपूर्वक विवाह किया, ऐसा वर्णन पूर्व भागमें हो ही गया है। प्रत्येक महाभारतमे वर्णन है । प्रायः सभी वर्णका अपने ही वणेकी स्त्री करनेका विवाहोंमें ब्राह्म-विधि यानी दानका ग्वाज अधिकार था। इसके अतिरिक्त उसे अपने था । एक दुष्यन्त और शकुन्तलाकं वर्णमं नीचेवालेकी बेटी ब्याह लेनेका विवाहका उदाहरण ही उक्त गतिके भी अधिकार था। अर्थात् ब्राह्मणको विरुद्ध है। उसमें गान्धर्व विवाह होने-क्षत्रिय, वैश्य और शुद्रके यहाँ, तथा के पश्चात् दूसरी कार्ड विधि होनेका क्षत्रियको वैश्य और शुद्रकं यहाँ ब्याह कर वर्णन नहीं: और शकुन्तलाके पितासे लेनका अधिकार रहा हो, नथापि महा. दुष्यन्तकी भेटतक नहीं हुई। एसे अप- भारतमें अनेक स्थलों पर कहा गया है वादात्मक उदाहरणोके सिवा प्रायः सभी कि ब्राह्मण शुद्रा स्त्रीका ग्रहण न करें। प्रकारके विवाहोंमें ब्राह्म-विधि यानी ऐसा विवाह निन्द्य समझा जाता था। दान-विधि सदैव रहती थी। शद्रा स्त्री ग्रहण करनेवालेको वृषलीपति सभी विवाह-विधियोका मुख्य अङ्ग कहते थे। यह नियम था कि ब्राह्मकर्म सप्तपदी प्राचीन कालसे माना हुश्रा देख । अर्थात श्राद्धादिकं लिय अथवा दान देनके पड़ता है। विवाह-विधिमै अग्नि के समन लिये वृषलीपति योग्य नहीं है। और तो पति-पत्नी जो सात फर करने हैं, उस और, यह भी माना जाता था कि वह विधिका नाम सप्तपदी है और उस विधि- अधांगतिको प्राप्त होगा। जयद्रथको का एक मुख्य अङ्ग पाणिग्रहण संस्कार 'माग्नी प्रतिक्षा करते समय अर्जुनने जो भी है। मन्त्र-होमसे सप्तपदी होना ही जो शपथ की थीं, उनमें एक शपथ यह भी विवाहको पूर्ण करना है। इसके बिना है कि "मुझे वे लोक प्राप्त हो जहाँ वृषली. विवाह अधूरा ही रहना है। धर्मशास्त्रका पनि जाते है ।" प्रस्तु: उस समय लोग ऐसा निश्चय महाभारतके समय स्पष्ट चाहते थे कि ब्राह्मण या क्षत्रिय भी शुद्रा- देख पड़ता है (अनुशासन पर्व) । इसकं को न ब्याहे । तथापि इसमें सन्देह अतिरिक्त कन्याके शुल्क-सम्बन्धी अर्थात नहीं कि महाभाग्नकं समय ग्रामण लोग मोल-सालक सम्बन्धी अनक प्रश्न होत नीचकं नीनी वमोंकी बेटियाँ लेते थे। थे। महाभारनमें इन प्रशीक सम्बन्धम अन्य एतिहासिक प्रमाणास भी यह वान
पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/२६१
दिखावट