पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/२७

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महाभारतमीमांसा an . ३५ नारायणं नमस्कृत्य नरंचैव नरोत्तमम् । देवी सरस्वतीं चैव ततो जयमुदीरयेत् ॥ अर्थ-नारायणको अर्थात् श्रीकृष्णको | संस्कृत भाषामें और बहुत कुछ सुगम है। तथा नरोंमें श्रेष्ठ जो नर, अर्थात् अर्जुन, उसमें प्राचीन कालकी अनेक ऐतिहासिक उसको नमस्कार करके और सरस्वती कथाएँ एक ही स्थानमें ग्रथित की गई देवीको भी नमस्कार करके अनन्तर जय | हैं।प्राचीन कालमें अश्वमेघ आदि जो दोर्ष- नामक ग्रन्थको अर्थात् महाभारतको सत्र अथवा बहुत दिनोतक चलनेवाले पढ़ना चाहिये। यश हुश्रा करते थे उन यज्ञोंमें अवकाशके समय बहुतसी ऐतिहासिक गाथाएँ अथवा प्रस्ताव। आख्यान कहने अथवा पढ़नेकी प्रथा थी। भारतवर्षके प्राचीन प्रन्थों में वेदोंके ऐसे अवसरों पर पढ़े जानेवाले अनेक उपरान्त ऐतिहासिक दृष्टिसे महाभारत-ऐतिहासिक आख्यान महाभारतमें एकत्र का महत्त्व बहुत अधिक है । बल्कि वेद किये गये हैं । इसके अतिरिक्त महाभारत- तो प्राचीन आर्य भाषामें हैं और उनका में स्थान स्थान पर धर्म, तत्त्वज्ञान, व्यव- बहुतसा अंश यशोंके अनेक वर्णनों और हार, राजनीति आदि बातोंके सम्बन्ध वैदिक देवताओंकी स्तुतियोंसे भरा हुआ है, इतना विस्तृत विवेचन किया गया है कि इसलिये वैदिक साहित्यमेसे ऐतिहासिक वह धर्म-ग्रन्थ अथवा राजनीति-प्रन्थ ही अनुमान अस्पष्ट और कम ही निकल सकते बन गया है । तात्पर्य, महाभारतकी है। परन्तु महामारत प्रन्थ लौकिक प्रशंसामें प्रारम्भमें जो यह कहा गयाहै-