ॐ सामाजिक परिसिनिअन । * - - तं तं देवं समुहिश्य पशवः पक्षिणश्च ये। बहुत कुछ भिन्न हो गई थी और भारती ऋषभाः शास्त्रपठितास्तथा जलचराचये॥ आर्य विशेषतः ब्राह्मणोंने--उनमें भी सर्यास्तानन्धयुऑस्ते तत्राग्निचयकर्मणि। अध्यात्म मार्गमें संलग्न योगी प्रभृतिने- (अश्व० ० ८८-३४) मांसाहार छोड़ दिया था। इसके सिवा इस वर्णनसे स्पष्ट है कि युधिष्ठिरके बौद्ध, जैन और भागवत मनका चलन यशमें हवनके लिये अनेक पशु-पक्षी मारे बहुत कुछ हो जानेसे सर्व साधारणमें गये। अश्वमेधकी विधिमे ही, श्रौत सूत्रके आहिंसाका दर्जा बढ़ गया और इन अनुसार, अनेक पशुओंको मारना पड़ता लोगोंमें मांस-निवृत्तिकी बहुत प्रगति हो है। यश में मारे हुए पशुओका मांस गई थी। ऐसे समय, भारतके अश्वमेधोके ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य निस्सन्देह वर्णन और उनमें किये हुए ब्रह्मभोजके खाते थे । महाभारतमें वर्णित है कि युधि- वर्णन लोगोंको न जाने कैसे (अप्रिय ) ष्ठिरके अश्वमेधके उत्सवके अवसर पर लगते होंगे। इसी कारण, यहाँ पर सौतिने भी अनेक पशुओको हिंसा होती थी। खास तौर पर उस नेवलेकी कथा सन्नि- भदयखाण्डवरागाणां क्रियतां भुज्यतांतथा। विष्ट कर दी है जिसका मस्तक सोनेका पशूनां वध्यतां चैव नान्तं ददृशिरे जनाः ॥ हो गया था। और पशु-वधसे संयुक्त (अश्व० अ०४१) यज्ञ एवं मांसान-भक्षणको निन्दा करके "अश्वमेध यज्ञमें 'खाण्डवराग' पकान यह दिखलानेका प्रयत्न किया है कि प्रश्व- नैयार करने में इतने आदमी लगे थे और मेधका पुण्य उस पुण्यसे भी हलका है इतने पशु मारे जाते थे कि उसका जो एक साधारण वानप्रस्थने भूखे-प्यासे ठिकाना नहीं।" (अश्वमेध पर्व 18 वाँ अतिथिको मुट्ठीभर सक्थु देकर प्राप्त अध्याय) इसके सिवा और कई एक वर्णन किया था। इस नेवलेके आख्यानसे साफ़ इस सम्बन्धमें महाभारतसे दिये जा । देख पड़ता है कि भारती युद्ध के समयसे सकते हैं। सभापर्वके ४ थे अध्यायमें लेकर महाभारत-कालतक लोगोंको मांसा- मय-सभागृहमें प्रवेश करते समय दस हार-प्रवृत्तिमें कितना फ़र्क पड़ गया था। हज़ार ब्राह्मणोंको भोजन कराया गया। परन्तु यह झगड़ा यहीं नहीं निपट उस समय धर्मराजने- "उत्तम उत्तम गया। क्षत्रियोंकी पुरानी रीतियों और कन्दमूल और फल, वराहों और हिरनोंके कल्पनाओंको बदल डालना बहुत कठिन मांस, घी, शहद, तिल-मिश्रित पदार्थ 'था। अश्वमेध पर उनकी जो प्रीति और और तरह तरहके मांसोंसे उनको सन्तुष्ट श्रद्धा थी, वह ज्योंकी त्यों कायम थी और किया।" इस वर्णनसे निर्विवाद सिद्ध है मांसाहार करनेका उनका दस्तूर बदला कि जिस तरह पाश्चिमात्य आर्य यूनानी न था । उच्च ब्राह्मण भी वैदिक कर्मानुष्ठान और जर्मन आदि मांस-भक्षण करते थे, छोड़ देनेके लिये तैयार न थे और इस उसी तरह भारती-युद्धके समय भारती काममें क्षत्रियोंके सहायक बनकर यह मार्य ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य मांस प्रतिपादन करते थे कि वेदोक्त पशु-पक्षसे खाते थे। हिंसा नहीं होती। ऐसे लोगोंके समान मांसका परित्याग। धानके लिये नकुलके आख्यानके पश्चात् परन्तु महाभारतके समय अर्थात् और एक अध्याय बढ़ाया गया। इसमें सौनिके समय भारती पार्योकी परिस्थिति जनमेजयने प्रश्न किया है कि महर्षि व्यास
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