पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/३०९

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  • सामाजिक परिस्थिति-गति-ग्वाज | *

२८३ है, वह हिजड़े अथवा स्त्रीको भाँति दुखी उसके प्रारम्भमें इस स्थितिका उल्लेख होता है।" ११ वें अध्यायमें एक बहुतही देख पड़ता है । यक्षने पूछा है कि मानन्दी मज़ेदार सम्वाद है। यह सम्बाद द्रव्यकी और सुखी कौन है । इस पर युधिष्ठिरका देवी लक्ष्मी और रुक्मिणीके बीच कराया यह उत्तर है- गया है। रुक्मिणीने भाग्य-देवीसे पूछा पञ्चमेऽहनि षष्ठे वा शाकं पचति स्वे गृहे। है-"तुम कहाँ रहती हो?" देवीने उत्तर अनणी चाप्रवासी च सवारिचर मोदते ॥ दिया- "हे यक्ष, जो मनुष्य पाँचवे या छठे वसामि निन्यं सुभगे प्रगल्भ दिन निरा शाक स्वयं अपने घरमें रॉधता दक्ष नरं कर्मणि वर्तमान। है और जिस पर न तो कर्ज है और न अक्रोधने देवपर कृतज्ञ जिसे कहीं बाहर विदेशमें जाना-माना है, जितेन्द्रिये नित्यमुदीर्णसत्त्वे । वह मनुष्य सदा आनन्द करता है।" नाकर्मशील पुरुषे वसामि (व० अ० ३१३) यद्यपि इसमें वर्णित तत्त्व न नास्तिके सांकरिके कृतघ्नं ॥ सञ्चा है, तथापि दारिद्य भोगकर भी 'मैं कर्तव्य-दक्ष, नित्य-उद्योगी, क्रोध निरुद्योग द्वारा दिन काटनेकी महाभारत- न करनेवाले, देवताओंकी आराधनामें कालकी प्रवृत्ति, इस संवादसे, खूब साफ़ तत्पर, उपकारको माननेवाले, इन्द्रिय हो जाती है। निग्रही और सदा कुछ न कुछ करनेवाले किन्तु महाभारत-कालके प्रथम भारती परुषमें वास करती है। जो निमद्योगी हैं. आर्य लोग बहत प्राशावादी. उत्साही और देवताओं पर जिनकी श्रद्धा नहीं है, जो उद्योगी थे: व सच और स्पष्ट बोलते वर्ण-सङ्करकर्ता और कृतघ्न हैं-मैं उनमें थे-लल्ला-चप्पा उन्हें बिलकुल न सुहाती नहीं रहती। थी। उनकी वृत्ति केवल स्वाधीन ही न इस वर्णनसे प्रकट है कि भारती थी, बल्कि और किसीसे भी वे अपनी कालमें उद्योगी मनुष्यकी प्रशंसा हाती सादी, सरल और कम खर्चस रहनेकी थी। परन्तु धीरे धीरे लोगोंके इस स्वभाव- पद्धतिमें हार माननेवालं न थे । क्षत्रियों में फर्क पड़ता गया: और महाभारतके अथवा राजाओंमें मद्य और घृतके समय भारती लोगोंका स्वभाव बिलकुल व्यसनके सिवा और लोगोंमें व्यसम या बदल गया। साधारण रीति पर लोग : दुर्गुण बहुधा न थे। यह बात निर्विवाद आलसी और निरुद्योगी हो गये । समग्र देख पड़ती है। देशकी आब-हवा गरम और ज़मीन उप- जाऊ होनेके कारण अन्न सस्ता था। इस चोरीका प्रभाव । कारण स्वभाव बदल गया होगा। इसके : चांग करनेकी प्रवृत्ति भारती लोगों सिवा सब जगह जनसंख्या बहुत बढ़ गई में बहुत ही कम थी । मेगास्थिनीज़न थी। इससे समाजके कई एक भाग बहुत अचम्भेके साथ लिखा है-"चन्द्रगुप्तकी ही दरिद्र हो गये। इस कारण भी इस प्रचण्ड सेनाकी छावनी में कोई चार लाख प्रकारका स्वभाव बन सका और मनुष्य आदमी होंगे; परन्तु प्रतिदिन बहुत ही देव पर भरोसा रखकर निरुद्योगी बन कम चोरियां होने की खबर पाया करती गये । महाभारतमें सौतिके समय यक्ष- थी। और चोरियोंका माल दो सौ दाम प्रश्नका जो आल्यान सौतिन मिलाया है. ' (रुपये) से अधिक मुल्यका न होना था।"