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- महाभारतमीमांसा 8
मतलब यह कि चोरी-चकारी बहुत कम “पाञ्चाल-देशी लोग वेदाध्ययनके होती थी और वह भी छोटी छोटी। लिए प्रसिद्ध है । कुरु देशके लोग धर्मा- "समस्त लोगों में कायदे-कानून बहुत ही चरणके लिए प्रसिद्ध हैं। मत्स्यदेशवाले कम है और लोग उनको पूरे तौर पर सत्यताके लिए और शूरसेनी लोग यशके मानते हैं । यूनानियोंमें जिस तरह दस्ता- लिए प्रसिद्ध हैं । परन्तु प्राच्य अर्थात् वेज़ पर गवाही और (सील ) मोहर की मगधके लोग दास-खभावके होते हैं और जाती है, वैसी रीति इन लोगोंमें नहीं है। दक्षिणवाले अधार्मिक होते हैं । पजाबके न्यायासनके आगे ये लोग बहुत कम अभि- यानी वाह्रीक देशके लोग चोर, और योग ले जाते हैं । इसका कारण यह है कि सुराष्ट्र (काठियावाड़) वालोंमें वर्णसङ्करता हिन्दुस्थानी लोग जिस समय रहन रखते बहुत होती है।" इस वाक्यसे उन देश- या कर्ज़ देते हैं, उस समय दारमदार वालोंके गुण-दोषका महाभारतके समय विश्वास पर ही रखते हैं ।" समकालीन का परिचय मिलता है। पाञ्चाल देश- यूनानियोंने हिन्दुस्थानमें श्राकर आँखों- : वालोका वेदाध्ययन वैदिक कालसे देखी जो यह गवाही लिख छोड़ी है, प्रसिद्ध है और महाभारतके पश्चात् भी उससे महाभारत-कालीन हिन्दुस्तानियों- अहिच्छत्र (पाश्चालोंकी राजधानी) के की सचाईके विषयमें और उनकी नीति- ब्राह्मणोंको भिन्न भिन्न देशोमें सिर्फ वेद मत्ताके सम्बन्धमें हमारे मन पर बहुत ही पढ़ानेके लिये, ले जानेका प्रमाण इतिहास- अच्छा असर पड़ता है। हिन्दुस्थानियोंकी ' में मिलता है। आश्चर्यकी बात है कि प्रधा- वर्तमान परिस्थिति देखते हुए मानना मिकताके लिए दाक्षिणात्य प्रसिद्ध थे। पड़ेगा कि उनके उल्लिखित स्वभावमें (कदाचित् मातुल-कन्या ब्याहने और बहुत कुछ अन्तर पड़ गया है। यहाँ पर - पलागडु-भक्षण करनेका दोष उनमें प्राचीन अब यह ऐतिहासिक किन्तु महत्त्वपूर्ण कालसे ही प्रसिद्ध होगा।) प्रश्न होता है कि यह अन्तर कब और कैसे पड़ा। तथापि यहाँ इस प्रश्न पर शीलका महत्त्व । विचार करना, हमारे कर्तव्यको सीमासे यद्यपि यह बात है, तथापि महाभा- बाहर है।
- रत-कालमें भारती लोगोंका पूर्ण रीतिसे
यहाँ पर कह देना चाहिए कि कछ इस बात पर ध्यान रहता था कि हमारा देशोंके लोगोंकी, भिन्न भिन्न गुण-दोषोंके शील उत्तम रहना चाहिए । उस समय- विषयमें, महाभारतके समय भी विशेष का मत यह था कि ब्राह्मणमें यदि सच्छील प्रसिद्धि थी । और ऐसे भेद लोगोंके न हो तो फिर वह ब्राह्मण ही नहीं: अर्थात स्वभावमें भिन्न भिन्न प्रान्तोंमें अाजकल ! उसके साथ ब्राह्मणकासा व्यवहार न भी देखे जाते हैं । कर्ण पर्व (अध्याय ४५) करके शुद्रकासा व्यवहार किया जाय । में कर्णने शल्यकी निन्दा की है। उस यक्ष-प्रश्नके निम्नलिखित श्लोक बहुत भाषणमें यह श्लोक पाया है- महत्त्वके है- ग्रामं पाश्चालाः कौरवेयाश्च धर्म्यम् ! शृणुयक्ष-कुलं तात म स्वाध्यायो न च श्रुतम्। सत्यं मत्स्याः शौरसेनाच यशम्। कारणं हि द्विजत्वे च वृत्तमेष न संशयः ॥ प्राच्या दासा वृषला दाक्षिणात्याः वृत्तं यत्नेन संरक्ष्यं ब्राह्मणेन विशेषतः । स्तंना वाह्रीकाः सङ्करा वै सुराष्ट्राः॥ अक्षीणवृत्तो न क्षोणी वृत्ततस्तु हतोहतः ॥