सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/३४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
३२०
महाभारतमीमांसा

३२०

  • महाभारतमीमांसा 8

ईमानदार और दक्ष अधिकारी नियत प्रबन्धसे तरीके विषयमें कुछ झगड़ा नहीं किये जानेकी आवश्यकता थी। होने पाता और काम ठीक हो जाता है। प्राचीनकालमें नमक बड़ीभारी श्राम- इस तरीके द्वारा बहुत बड़ी आमदनी दनीका विषय था । इस समय ब्रिटिश होती है । अब अन्तमें नागबलके सम्बन्ध- राज्यमें भी वह एक महत्त्वका विषय है। में कुछ कहना चाहिए । प्राचीन कालमें नमक समुद्रो या खदानोंमें पैदा होता और इस समय भी यही धारणा देख है। सब स्थानों में नहीं होता । परन्तु पड़ती है कि जंगलके सब हाथी राजाके उसकी आवश्यकता सभी लोगोंको हुआ है। हाथी विशेषतः राजाका धन माना करती है । अतएव नमक पैदा करनेवाले जाता है। पूर्व कालमें हाथी फौजके काम- राष्ट्रमें और न पैदा करनेवाले गएमें भी में लाये जाते थे। जिस जंगलमें हाथी पैदा नमकका कर एक महत्त्वका कर होता है होते थे उस पर राजाका स्वतंत्र हक और उसके लिए किसी स्वतन्त्र ईमान- रहता था। उसमें किसीको शिकार दार अधिकारीकी आवश्यकता होती है। खेलनेकी स्वाधीनता नहीं रहती थी । निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि उसके लिए स्वतंत्र अधिकारी नियत शुल्कसे किस वस्तुका बोध होता है। किये जाते थे। हाथियोंके डॉकी वृद्धि टीकाकारका कथन है कि जिस स्थानमें करने तथा उनको पकड़नेका सब प्रबन्ध अनाज बेचा जाता है, उसे शुल्क कहते इन्हीं अधिकारियोंके द्वारा हुआ करता हैं। शुल्क वह कर होगा जो आजकल था। जिन जंगलोंमें हाथी नहीं रहते थे चे रजवाडोके बाजारोंमें खरीद और बिक्री लोगोंके लिए खुले रहते थे। उनमें लकड़ी पर सायरके नामसे लिया जाता है। काटने और ढोरोको चरानेकी स्वतंत्रता कन्याके विवाह के समय जो धन कन्याके सब लोगोंके लिए रहती होगी । दो पिताको दिया जाता है, उसे भी शुल्क गटोंके बीचमें हमेशा बड़ा जंगल रहता कहते हैं। क्योंकि यह भी एक खरीद ही था; क्योंकि राष्ट्रोंकी सरहद इन्हीं जङ्गलोसे है। अर्थात् शुल्क नामक कर खरीद और निश्चित होती थी और ये जङ्गल किसी बिक्री पर लगाया जाता होगा और पूर्व . राष्टके स्वामित्वके नहीं समझे जाते थे। कथनानुसार वह फी सैंकड़े दो रुपया उनपर किसीका स्वामित्व नहीं रहता था। होगा । इस करके लिए भी एक स्वतन्त्र अटवी पर्वताश्चैव नद्यस्तीर्थानि यानि च । और ईमानदार अधिकारीकी श्रावश्यकता सर्वाण्यस्वामिकान्याहर्नास्ति तत्र परिग्रहः॥ है। 'तर' उस करको कहते हैं जो नदी (अनुशासन पर्व अ० ६६ श्लो० ३४) या समुद्र पार करनेके स्थान पर लिया “जङ्गलों, नदियों, पहाड़ों और तीर्थों जाता है। समझमें नहीं आता कि यह ' पर किसीका स्वामित्व नहीं, और कर महत्त्वका क्यों होना चाहिए । प्रवा- किसीका कबजा भी नहीं रह सकता" सियोको इधरसे उधर ले जानेका काम . इसी कारण प्राचीन कालमें क्षत्रिय नाव चलानेवालोंका है। वे अपनी मज- और ब्राह्मण निर्भय होकर जङ्गलमें जा- दूरी अलग लेते ही हैं । फिर भी प्राचीन कर रहते थे। उनसे कोई पूछ नहीं सकता कालसे आधुनिक कालतक यही मान था कि यहाँ तुम क्यों बैठे हो । सैकड़ों लिया गया है कि रीपर राजा या सर- गडरिये जङ्गलमें अपने जानवरोंको ले- कारका इसलिए हक होता है कि उनके कर निर्भयताके साथ रहते थे। प्राचीन