पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/३५५

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  • राजकीय परिस्थिति। *

स्पष्ट है कि न्यायासनके सामने बहुधा इसके बाद न्यायसभाके सभासदोकी लेनदेनके यानी वैश्योंके सम्बन्धके विवाद जानकारीके आधार पर राजा अपना ही अधिक आते थे और इतने वैश्योंकी निर्णय बतलाता था और शीघ्र ही उसकी सहायतासे लेनदेनके व्यवहारकी रीति- तामील होती थी। तात्पर्य यह है कि रस्मोके अनुकूल निर्णय करने में सुभीता पूर्व कालमें न्याय चटपट हो जाता पड़ता था । हमें इतिहाससे मालूम होता था और स्वयं राजाके न्यायकर्ता होनेके है कि इस प्रकारकी चातुर्वर्ण्यकी न्याय- कारण कहीं अपील करनेकी कल्पनाका सभा महाभारत-कालके बाद बन्द हो उत्पन्नतक होना सम्भव न था । अपीलकी गई।* मृच्छकटिकमें राजाके बदले एक कल्पना अंगरेजी राज्यकी है और उसके न्यायाधीश और राजसभाके बदले एक भिन्न भिन्न दर्ज होनेके कारण आजकल श्रेष्ठी अथवा सेठ पाता है। जिस समय लोग पागलसे हो जाते हैं। न्यायसभामें स्वयं राजा बैठता था उस ' पहले जमानेमें स्टाम्पकी व्यवस्था म समय निर्णयके लिए बहुत थोड़े झगड़े थी। यह व्यवस्था ब्रिटिश-शासनके नये राजसभाम आते रहे होंगे, क्योंकि साधा- सुधारका द्योतक है। पर प्राचीन काल में रणतः लोग राजाके सामने झगड़े पेश वादी और प्रतिवादीको सरकारमें दण्ड करने में हिचकते रहे होंगे। उन झंझटोंका भरना पड़ता था। यदि वादी हार जाता निर्णय वे लोग श्रापसमे कर लेते थेअथवा था तो उसे दगड के स्वरूपमें दावेकी न्यायसभाके बाहर वादी और प्रतिवादीकी रकमका दुना सरकारको देना पड़ता था; मंजूरीसे पञ्चकी सहायतासे समझौता और यदि प्रतिवादी हारता था तोवह दण्ड- हो जाता था । जब कोई उपाय न रह के स्वरूपमें उतनी ही रकम देता था। इस जाता था तब मुकदमा राजाके सामने दगडकी व्यवस्थाके कारण भी न्याय-दर- पेश होता था। सारांश यह है कि आज- बारमें आनेवाले मुकदमे बहुत ही थोड़े कलके हिसाबसे उस समय मामलोकी रहते थे। परन्तु महाभारतमें इस दगडकी संख्या बहुत ही थोड़ी होती थी । पूर्व व्यवस्थाका उल्लेख कहीं नहीं है । टीका- कालमें बहुत करके यह पद्धति थी कि काग्ने यह उल्लेख बादकी स्मृतियों के अनु- वादी और प्रतिवादी अथवा अर्थी और सार किया है। हमाग तर्क है कि बहुत प्रत्यर्थी राजाके सामने एक साथ ही जायें । करके महाभारत-कालमें दण्डकी व्यवस्था और गवाह भी साथमें ही रहें । यह । प्रचलित न थी। क्योंकि यह कहा जा चुका पहले ही बतलाया जा चुका है कि राजा-! है कि प्रजाको न्याय-दान करने और का किसी पक्षसे रिशवत लेना पाप दुष्टोंको सजा देनेके लिए ही राजाको समझा जाता था । यदि प्रतिवादी वादी- कर देना पड़ता है । तथापि इस सम्बन्ध- के दावेसे इन्कार करता था तो गवाहों- में कोई बात निश्चयके साथ नहीं कही जा से शपथ लेकर निर्णय किया जाता था। सकती। यह भी कहा गया है कि जब वादी शपथ लेनेकी क्रिया बड़े समारम्भसे और प्रतिवादी दोनोंके कोई गवाह न हो होती थी और गवाहके मन पर उसका तब बड़ी युक्तिके साथ इन्साफ करना बहुत ही अच्छा परिणाम होता था। चाहिए । ऐसे प्रसङ्गोंमें युक्तिकी योजना • काश्मीरके इतिहासमे मालूम होता है कि स्वयं करनेके बारेमें अनेक कथाएँ प्रचलित हैं सजा भी न्यायसभामें बैठता था। जिनका उल्लेख करनेकी यहाँ कोई आष. ४२