पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/३६

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महाभारतमीमांसा
  • महाभारतमोमांसा है

भाषाके समान देख पड़ती है। इसमें कर दिया है, तथापि दो तीन स्थानों में सन्देह नहीं कि महाभारतके कुछ भागों-चमत्कारिक असम्बद्धता उत्पन्न हो गई की भाषा बहुत प्राचीन और बड़ी ज़ोर- है। देखिये, (१) ग्रन्थके प्रारम्भमें ही दार है। इस बातकी सत्यता भगवद्गीता- यह कथा है कि जब द्वादश वार्षिक सत्र के समान कुछ भागोंकी भाषासे प्रकट के समय सौति उग्रश्रवा कुलपति शौनक हो सकती है । सौसिके सम्बन्ध विचार के पास आया और उससे पूछा गया कि करते समय इस बात पर ध्यान रहे कि ! "त कहाँसे पाया है : उसने उत्तर यद्यपि सूत प्रायः कथा बाँचनेका धन्धा दिया कि "मैं जनमेजयके सर्पसत्रसे पाया किया करते थे, तथापि लोमहर्षणके पुत्र हूँ और वहाँ वैशम्पायन-पठित व्यास-कृत उप्रश्रयाको सौति कहनेका कोई कारण महाभारत मैंने सुना है ।" परन्तु श्रादि- ही देख पडता: क्योंकि "सूत" जाति-पर्वके चौथे अध्यायके प्रारम्भमें फिर वाचक नाम है और पुराणोंमें उल्लेख है वही बात गद्यमें इस प्रकार कही गई है कि सूतने शौनकको अनेक कथायें सुनाई कि सौतिने शौनकके पास जाकर पूछा- थीं। परन्तु सूत और सौतिके ऐतिहासिक "कौनसी कथा सुननेकी तुम्हारी इच्छा व्यक्ति होने में किसी प्रकारका सन्देह नहीं है ?” तब शौनकने कहा कि भृगु-वंशका है। इस बातका विचार आगे चलकर वर्णन करो। इसके बाद 'सौतिरुवाच के किया जायगा कि सौतिने वैशम्पायनके बदले 'सूतउवाच' कहा गया है । इस पर- भारतको बढ़ाकर महाभारतका स्वरूप स्पर-विरोधी वचनका कारण क्या है ? क्यों और कैसे दिया । परन्तु ग्रन्थके टीकाकारने अपनी प्राचीन पद्धतिके अनु- काल-निर्णयसे इस बातमें बिलकुल सन्देह सार इस विरोधका परिमार्जन यह कहकर नहीं रह जाता कि यह सौति वैशम्पायन- कर दिया है कि महाभारतके ये भिन्न का समकालीन नहीं था । ऐसी अवस्थामें भिन्न प्रारम्भ भिन्न भिन्न कल्पोंसे सम्बन्ध 'भारत' के प्रारम्भमें जो यह लिखा गया रखते हैं । परन्तु यह कारण सन्तोष है कि "सर्पसत्रके समय वैशम्पायनक दायक नहीं जान पड़ता । सम्भव है मुखसे मैंने भारली-कथा सुनी,” उसे कि वैशम्पायनके भारतको बृहत् स्वरूप लाक्षणिक अथवा अतिशयोक्तिका कथन देनेका प्रयत्न पिता और पुत्र दोनोंने किया समझना चाहिये । सौति और वैशम्पायन- हो। ये दोनों प्रारम्भ काल्पनिक हैं और में हज़ारों वर्षीका नहीं तो कमसे कम कई सम्भव है कि पिता एवं पुत्रने परस्पर सौ वर्षीका अन्तर अवश्य है । व्यासजीके श्रादरके कारण उन दोनोंको ग्रन्थमे स्थान मूल ग्रन्थ और वैशम्पायनके भारतमें, दे दिया हो । सौति कथा बाँचनेका व्यव- परिमाण तथा भाषाके सम्बन्धमें, विशेष साय किया करते थे। उन्हें जो पौराणिक अन्तर नहीं है। परन्तु जिस समय सौति-बात मालुम थीं उनका उपयोग उन्होंने ने २४००० श्लोकोको बढ़ाकर एक लाखका | भारतको सर्वमान्य और धार्मिक खरूप ग्रन्थ बना दिया, उस समय काल-भेदके देने में क्यों और कैसे किया, इस बासका अनुसार भाषाके सम्बन्धमें अन्तर हो विचार भागे किया जायगा। परन्तु इसमें जाना स्वाभाविक बात है । यद्यपि सौतिने सन्देह नहीं कि इस प्रकार उपयोग करते अपने विलक्षण बुद्धिचातुर्यसे सारे ग्रन्थ-समय एक और असम्बद्धता उत्पन्न हो में एकता लाकर उसे पूर्व-अपर-सम्बद्ध गई है। वह यह है:-(२) तीसरं अध्यायमें