पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/३७

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  • महाभारतके कर्ता

११ किसीगध प्रन्थकाअवलम्ब किया गया है। माँगा, उसने दिया या नहीं, और उसका उस कथाका सारांश यह है-"जब राजा परिणाम क्या हुआ, इत्यादि बातोंका कुछ जनमेजय कुरुक्षेत्रमें दीर्घ सत्र कर रहा भी पता नहीं चलता। आगे चौथे अध्याय था उस समय यक्ष-मण्डपमें एक कुत्ता में फिर भी सूत और शौनक की भेंटके आया । उसे जनमेजयके भाइयोने मार प्रसङ्गका वर्णन किया गया है और भृगु- कर बाहर भगा दिया। तब वह रोता वंश-वर्णन आदि कथायें दी गई हैं। इसके हुआ अपनी माता देवशुनीके पास गया। बाद कई अध्यायोंमें श्रास्तीक पर्व और उसने यज्ञ-मण्डपमें जाकर जनमेजयको सर्प-सत्रको कथा है। इस सर्प-सत्रकी शाप दिया कि तेरे कार्यमें अकल्पित विघ्न के शाप उत्पन्न होगा। जनमेजयने अपना सत्र पूरा सोमश्रवाके नियमका कुछ मी सम्बन्ध किया और हस्तिनापुरमें श्राकर वह इस नहीं देख पड़ता। यहाँतक कि इस सर्पः बातका विचार करने लगा कि उस पाप- सत्रकी कथामें सोमश्रवाका नाम भी कृत्याका परिहार कौन करेगा। इसके बाद नहीं है। आस्तीकने जनमेजयसे प्रार्थना उसने श्रुतश्रवा नामक ऋषिके पुत्र मोम- की कि सर्प-सत्र बन्द कर दिया जाय श्रवाको अपना परोहित बनाया। परन्त और तक्षकको प्राणदान दिया जाय। सब श्रुतश्रवाने अपने पुत्रके कठिन नियमके ऋषियोंके कहनेसे जनमेजयने इस प्रार्थना विषयमें जनमेजयको साफ़ साफ़ यह बतला का स्वीकार किया। ऐसी अवस्थामें यह दिया था कि, यदि कोई ब्राह्मण याचना कहना भी उचित नहीं है कि सोमवा करनेके लिये आवेगा और कुछ माँगेगा तो ने आस्तीककी प्रार्थनाका स्वीकार करके मेरा पुत्र उस याचकको मुंहमांगी वस्तु जनमेजयके मतके विरुद्ध उसके सर्प-सत्र- दे देगा; यदि यह नियम तुझे मान्य हो में विघ्न उपस्थित किया।सारांश, देवशुनीके तो तू इसे ले जा। जनमेजय ने स्वीकार शापका जो वर्णन और सोमश्रवा पुरोहित कर लिया और सोमवाको अपनी राज- की जो कथा गद्यमें दी गई है वह ज्योंकी धानीमें लाकर भाइयोंसे कहा कि इस न्यों अधग्में पड़ी रही और ग्रन्थमें असम्ब- पुरोहितकी जो श्राशा हो उसे पूरा करना द्धता उत्पन्न हो गई। ऐसी असम्बद्धता चाहिये। इसके बाद जनमेजय तक्षशिला महाभारतमें श्रीर कहीं देख नहीं पड़ती। देश पर विजय प्राप्त करने गया। उस ' हाँ, किसी किसी स्थानमें जहाँ सौतिने देशको हस्तगत करके वह अपनी राज- उपाख्यान जोड़ दिये हैं वहाँ किसी अंशमें धानीमें लौट आया ।" यह कथा गद्यमे असम्भाव्यता अवश्य देख पड़ती है; ही दी गई है। जान पड़ता है कि सौतिने परन्तु असम्बद्धता अर्थात् पूर्व-अपर- इसे किसी दूसरे ग्रन्थसे लिया है, परन्तु विरोध बहुत कम पाया जाता है । किसी उसने इस कथाका सम्बन्ध भारतीय-कथा- किसी स्थानमें, प्राचीन पद्धतिके अनुरूप से मिला नहीं दिया। इसके बाद अमणि श्लोक यनानेका प्रयत्न किया गया है। उदा- की गुरुनिष्ठाकी लम्बी चौड़ी कथा बतला हरणार्थ, वैशम्पायनके भारतमें भारतका कर इस अध्यायको ऐसा ही असम्बद्ध सारांश एक अध्यायमें है, इसलिये सौति- छोड़ दिया है। सोमश्रवा पुरोहितने जन- ने पहिले अध्यायमें 'बदाश्रौषम्' से मेजयकी पापकन्याका परिहार किया या प्रारम्भ करके बड़े वृत्तके ६६ श्लोक दिये नहीं, सोमश्रवासे किस प्राह्मणने क्या हैं और इनमें धृतराष्टके मुखले महाभारत