३३६
- महाभारतमीमांसा 8
शत्रुसेनाके अगुआ पुरुषोंको वशमें कर धर्म क्षीण होगया है और दस्युनोसे पीड़ा लेनेके लिए तू रत्नादिककी गुप्त भेट हो रही है। यह बात यवनोके आक्रमणके भेजता है न ? इससे उस जमाने में प्रत्येक लिए ही ठीक हो सकती है। भीष्मने उत्तर राजाको इस बातका डर लगा रहता दिया था कि-"ऐसे आपत्तिप्रसंग पर होगा कि न जाने कब उसकी सेना अथवा राजा प्रकट रीतिसे शरता दिखलावे । अधिकारी धोखा दे दें। केवल भारत- अपनेमें किसी तरहका छिद्र न रखे । शत्रुके कालमें ऐसे उदाहरण बहुत थोड़े मिलेंगे: छिद्र दिखाई पड़ते ही तत्काल आक्रमण पर अर्वाचीन कालके इतिहासमें ऐसे करे । साम आदि चार उपायों में दण्ड उदाहरण बराबर मिलते हैं। श्रेष्ठ है । उसीके आधार पर शत्रुका नाश कुटिल राजनीति। करे।आपत्तिकालमें योग्य प्रकारकी सलाह महाभारतकालमें मुख्य नीति यह थी करे। योग्य रीतिसे पराक्रम दिखलावे: कि शत्रुसे किसी तरहका कपट न करना और यदि मौका आ पड़े तो योग्य रीति- चाहिए । परन्तु यदि शत्रु कपटका आचरण : से पलायन भी करे। इस विषयमें विचार करे तो कहा गया है कि आप भी कपटका न करे । शत्रुका और अपना हित हो तो आचरण करें। इसके सिवा जिस समय संधि कर ले । परन्तु शत्रु पर विश्वास न राज्य पर आपत्ति श्रावे उस समय कपट ' रखे । मधुर भाषणसे मित्रकी तरह शत्रु- आचरण करनेमें कोई हर्ज नहीं । समग्र की भी सान्त्वना करता रहे । परन्तु राजनीतिके दो भेद बतलाये गये हैं। एक जिस तरह सर्पयुक्त घरके निवाससे सरल राजनीति और दुसरी कुटिल राज-सदा डरना चाहिए उसी तरह शत्रसे नीति । यदि सरल राजनीतिके श्राचरणसे भी सदैव डरता रहे । कल्याण चाहने- काम चलता हो तो स्पष्ट गतिसे कहा गया वाला प्रसङ्गके अनुसार, शत्रके हाथ है कि राजा उसका त्याग न करे । “वह जोड़ ले और शपथ कर ले, परन्तु समय मायावीपन अथवा दांभिकतासे ऐश्वर्य : आने पर कन्धेके मटकेकी तरह उसे पानेकी इच्छा न करे । दुष्टता करके शत्रु- पत्थर पर पटककर चूर चूर कर डाले । को कभी न फंसावे और किसी तरहसे मौका आने पर क्षण भरके ही लिए उसका सत्यानाश न करे ।" (शांतिपर्व ' क्यों न हो, श्रागकी तरह बिलकुल प्रज्व- अ०६६) तथापि युधिष्टिरने शांतिपर्वके हो जाय; परन्तु भृसकी तरह बिलकुल १४० वें अध्यायमें प्रश्न किया है कि जब ज्वालाहीन होकर चिरकालतक भभ- दस्युओसे अतिशय पीड़ा होती है उस कता न रहे । उद्योग करनेके लिए सदैव समय क्या करना चाहिए ? पहले जमाने- 'तत्पर रहे। अपनी आराधना करनेवाले की राजनीति भारतीय आर्य राजाओंके लोगों और प्रजाजनोंके अभ्युदयको इच्छा पारस्परिक सम्बन्धकी है। और इस समय रखे । आलसी. धैर्यशन्य, अभिमानी. भीष्मने जो आपत्तिप्रसंगकी नीति बत-: लोगोंसे डरनेवाले और सदैव अनुकूल लाई है वह म्लेच्छोंके आक्रमणके समयकी समयकी प्रतीक्षा करनेवालेको अभीष्ट है। बल्कि यह कहना ठीक होगा कि यह वस्तुकी प्राप्ति नहीं होती *। राज्यके सभी प्रसङ्ग महाभारतके समय सिकन्दरकी . • यह वाक्य अत्यन्त मार्मिक है:- चढ़ाईके अवसरको लक्ष्यकर बतलाया . नालसाः प्राप्नुवन्त्यान्न लीबा नाभिमानिनः । न च लोकरवादीता न वै शश्व प्रतीक्षिणः ।। गया है कि युगक्षय हो जानेके कारण (शां० ०२४०-२३)