पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/३६३

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  • राजकीय परिस्थिति।

प्रकको गुप्त रखे । बककी तरह अभीष्ट विश्वास नहीं करना चाहिए । जिस बस्तुकी चिन्ता करता रहे। सिंहकी तरह विषय पर शङ्का करनेका कोई कारण न पराक्रम दिखलावे। तीरकी तरह शत्र | हो उस पर भी शडा करनी चाहिए। पर टूट पड़े। मृगकी तरह सावधानीसे शत्रुका विश्वास जम जाने पर काषाय सोवे । अवसर आने पर बहरा अथवा वस्त्र, जटा श्रादि वैराग्य-चिह्नोंका स्वीकार अन्धा भी बन जाय । योग्य देश और करके उसका नाश करना चाहिए। दूसरे कालके आते ही पराक्रम करे । यद्यपि का मर्मभेद किये बिना अथवा हिंसा किये उद्योगका फल पूर्णताको न पहुँच चुका विना सम्पत्ति नहीं मिलती। जन्मसे हो, तथापि पहुँचे हुएके समान पाच- कोई मित्र अथवा शत्रु नहीं रहते। वे रण करे। समय प्राप्त होने पर शत्रको केवल मामर्थ्यके सम्बन्धसे शत्र या मित्र प्राशा दिलावे और उसे समयकी । होते हैं । शस्त्रपात करना हो तो भी प्रिय मर्यादा बतलावे । फिर उसके सफल भाषण करे और प्रहार कर चुकने पर भी होने में विघ्न डाल दे। फिर विनोका प्रिय भाषण करे । अग्नि और शत्रुका शेष कारण बतलावे और कारणाके मलमे न रग्ब । कभी असावधान न रहे । कोई हेतु बतलावे । जबतक शत्रुका लोभी श्रादमीको द्रव्य देकर वशमें करे । डर उत्पन्न न हुआ हो तबतक डरे | समानताके शत्रुसे संग्राम करे। अपनी हुएके समान व्यवहार करे । परन्तु मित्र-मण्डली और अमात्योंमें भेद उत्पन्न डरके उत्पन्न होते ही निर्भय मनुष्यकी न होने दे और उनमें पक-मत भी न होने तरह उस पर प्रहार करे। सङ्कट में पड़े दे। सदैव मृदु अथवा सदैव तीक्ष्ण न बिना मनुष्यकी दृष्टिमें कल्याण नहीं देख बने । शान-सम्पन्न पुरुषोंसे विरोध न पड़ता; परन्तु सङ्कट में पड़ने पर जीते करे। इस तरहम मैंने तुझे नीतिशास्त्रमें रहनेके बाद, कल्याणका होना अवश्य बतलाया है। इस नीतिकापातकसे सम्बन्ध दिखाई पडेगा जोशत्रसेसन्धि करके उम है, इसलिए इस तरहका आचरण सदैव पर विश्वास रखकर सुग्वसे पड़ा रहता है, नहीं करना चाहिए । जब शत्रु इस तरह- यह वृक्षकी चोटी पर सोनेवाले मनुष्यकी के आचरणका प्रयोग करे तब इस नीति- तरह नीचे गिरता है। चाहे सौम्य हो या मे काम लेनेका विचार करना चाहिए।" भयङ्कर, जैसा चाहिए वैसा कर्म करके तात्पर्य, यह नीति गजात्रोंके उस समयके दीन दशामे अपना उद्धार कर लेना श्राचरणके लिए बतलाई गई है जब वह चाहिए; और सामर्थ्य आने पर धर्म दस्युओं अथवा म्लेच्छोंसे ग्रस्त हो गया करना चाहिए । शत्रुके जो शत्रु हो उनका हो। इसमें यह स्पष्ट बतलाया गया है कि सहवास करना चाहिए । उपवन, विहार- ऐसा आचरण सदैव नहीं करना चाहिए: स्थल, प्याऊ, धर्मशाला, मद्यप्राशनगृह, सदैव करनेमे पाप होगा। पाठकोंको वेश्याओंके स्थल और तीर्थ-स्थानमें ऐसे स्मरण होगा कि म्लेच्छोमे लड़ते हुए लोग पाया करते हैं जो धर्मविध्वंसक, आपति-प्रसङ्गोमें शिवाजी महाराजने चोर, लोककण्टक और जासूस है। : इसी नीतिका अवलम्बन किया था। उनको ढूंढ़ निकालना और नष्ट कर देना इस नीतिका नाम कणिक नीति है। चाहिए। विश्वासके कारण भय उत्पन्न : धृतगटने पांडवोंके बल, वीर्य और परा- होता है। अतएव परीक्षा किये बिना क्रमको देखकर और उनके नथा अपने