ॐ राजकीय परिस्थिति। * ३३४ है, तब यह मानने में कोई हर्ज नहीं कि ही रहेगा। खराज्यका प्रधान लक्षण यही कुटिल नीतिको जो बातें कणिकनीतिके है कि राज्य और राजा दोनोंको अपना अध्यायमें दिखाई पड़ती हैं, वे महाभारत- समझनेकी दृढ़ भावना प्रजामें जाग्रतरहे। कालमें नई उत्पन्न हुई होगी। यह नीति राज्यका प्रत्येक परिवर्तन लोगोंकी मेकियावेली नामक यूरोपके प्रसिद्ध सम्मतिसे होना चाहिए। लोगोंकी यह कुटिल राजनीति-प्रतिपादकके मतकी कल्पना होनी चाहिए कि प्रत्येक परि- तरह ही कुटिल थी और चाणक्य तथा . वर्तनसे हमारे सुख-दुःखका सम्बन्ध है। चन्द्रगुप्तके इतिहाससे मालूम होता है कि जिस समय सभी लोग एक ही बंशके, उस समय हिन्दुस्थान पर इस नीतिका समान बुद्धिवाले और सरश सभ्यतावाले बहुत कुछ प्रभाव भी जम चुका था। रहते हैं, उस समय उनमें ऐसी राजकीय चाणक्यके ग्रन्थसे मालूम होता है कि भावना जाग्रत रहती है। परन्तु जिस उसकी नीति भी इसी तरहकीथी । मुद्रा- समय राज्यमें भिन्न भिन्न दर्जे और राक्षसमें उस नीतिका अच्छा चित्र खींचा सभ्यताके लोग जित और जेताके नातेसे गया है। सारांश यह है कि चन्द्रगुप्तके एक जगह पा रहते हैं, उस समय राष्ट्रीय समयमें पहलेकी सरल गजनीति दब भावना कम हो जाती है। लोग राजकीय गई थी और कुटिल राजनीतिका अमल परिवर्तनकी कुछ परवा नहीं करते और जारी हो चुका था। ' फिर राजा राज्यका पूरा स्वामी बन जाता है। ऐसी परिस्थितिमें महत्वाकांक्षी लोगों प्राचीन स्वराज्य-प्रेम। को, नाना प्रकारके उपायों और वैभवके यदि इसका कारण सोचा जाय तो लालचसे सहज हो, राजद्रोही बनाकर मालूम होगा कि महाभारतकालमराजानी- हर एक षड्यन्त्रमें शामिल करना सम्भव की सत्ता अतिशय प्रबल हो गई थी और हो जाता है। क्योंकि जब यह भाव नष्ट प्रजाके अन्तःकरणमें जैसा चाहिए वैसा हो जाता है कि राज्य प्रजाका है और स्वराज्य-प्रेम नहीं था, जिससे यह भिन्न उसीके समान मेरा भी है, तब उक्त दुष्ट प्रकारकी राजकीय परिस्थिति उत्पन्न हो वासनाका विरोध किसी तरहकी उस गई। जब यहमान लिया जाता है कि खामगी मनोवत्त नहीं करती। जहाँ स्वराज्यकी जायदादकी तरह राज्य राजाकी मिल्कियत कल्पना जाग्रत नहीं रहती वहाँ लोग है,तब प्रजामें इस भावका स्थिर रहना अस- : भंदके बलि होनेको सदा तैयार रहते हैं: म्भव है कि यह राज्य हमारा है। जबतक ओर एक राजाके नाश होने पर दूसरे यह भाव जाग्रत रहता है कि समग्र देश राजाके आनेसे उन्हें यही मालूम होता है सभी लोगोंका है, तबतक प्रजाके अम्तः- कि हमारी कुछ भी हानि नहीं हुई । बल्कि करणमें परराज्य द्वारा किये हुए भेद-प्रयत्न- किसी विशेष अवसर पर उनका लाभ भी की प्रबलता अधिक अंशोंमें सफल नहीं हो होता है। सकती। जहाँ राजाओंकी सत्ता अतिशय भारती-कालके प्रारम्भमें हिन्दुसान- प्रबल होती है, वहाँ लोगोंकी यह धारणा के गज्योंकी स्थिति पहले वर्णनके अनुसार रहती है कि राजा तो राज्यका स्वामी है- थी। राज्यमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और उसकी जगह पर यदि कोई दुसग राजा शुद्र प्रत्येक राजकीय मामलों में अपमा हो तो वह भी पहले राजाकी तरह स्वामी मन लगाते थे। उनकी यह भावना परी
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