ॐ महाभारतमीमांसा ॐ पूरी जाग्रत रहती थी कि यह राज्य हमारा। इस सम्बन्धमें कुछ भी परवा न थी। है। इस बातको प्रजाके सन्मुख समझा उनको बोलनेका अधिकार भी न था और देना पड़ता था कि राजाने अमुक काम सामर्थ्य भी न था । अतएव ऐसे राज्यों में क्यों किया । इसका एक मनोरञ्जक उदा- षड्यन्त्रकारी और राजद्रोही लोगोंकी हरण श्रीकृष्णके ही भाषणमें उद्योग पर्वमें बन पड़ी। इसलिए आश्चर्य नहीं करना पाया जाता है। लोगोंको इस बातको चाहिए कि राजा लोग साम, दान, दण्ड, समझा देनेकी आवश्यकता थी कि कौरव- । भेदके उपायोमेसे भेदका ही अधिक उप- पाण्डवका युद्ध क्यों हो रहा है और योग करने लगे । भारती-कालके प्रारम्भमें इसमें अपराध किसका है। “मैं चारों , उच्च कोटिको राजनीति थी; परन्तु महा- वर्णों को समझाकर बतलाऊँगा। चारों भारत-कालमें कुटिल राजनीतिका बहुत वोंके इकट्रे होने पर मैं उन्हें विश्वास कुछ प्रभाव हो गया और राजकीय अधि- दिला दूंगा कि युधिष्ठिरके कौनसे गुण कारियोंकी नीति बहुत कुछ भ्रष्ट हो गई। हैं और दुर्योधनके क्या अपराध है।" : भीष्मका राजकीय आचरण । श्रीकृष्णने कहा है कि:- गर्हयिष्यामि चैवैनं पौरजानपदष्वपि । . इस सम्बन्धमें भारती-युद्धके समय वृद्धबालानुपादाय चातुर्वण्य समागते ॥ भीष्मका आचरण अत्यन्त उदात्त और (उ० अ०७३-३३) अनुकरणीय हुआ है। बहुतेरे लोग प्रश्न अर्थात् राजकीय मामलों में चातुर्वर्ण्य- करते हैं कि युद्धके समय भीप्मने दुर्यो- को समझा देना आवश्यक था। जहाँ धनको ओरसे जो युद्ध किया, वह योग्य राज्यके लोग इस तरहसे राज्यको अपना है या नहीं । भीमने दुर्योधनसे स्पष्ट कहा समझकर राजकीय कामोंमें मन लगाते था कि तेरा पक्ष अन्यायपूर्ण है। उन्होंने हैं वहाँ राजद्रोहका उत्पन्न होना सम्भव ' उससे यह भी कहा था कि शतके अनुसार नहीं है । महाभारतमें यह भी कहा गया पाण्डवोंको राज्य अवश्य देना चाहिए । है कि-"एक राजा दूसरेके राज्यको उसी तरह दूसरा प्रश्न यह किया जाता जीत लेने पर वहाँके लोगोंसे कहे कि मैं ' है कि जब श्रीकृष्ण पाण्डवोंकी ओर थे तुम्हारा राजा बनता हूँ-तुम मुझे राज्य और भीम श्रीकृष्णको ईश्वरका अवतार सौंपो" अर्थात् लोक-सम्मतिके बिना मानकर उनकी पूरी पूरी भक्ति करते थे, राज्यके कामों में अथवा व्यवस्थामें परि- तब क्या भीष्मका दुर्योधनकी ओर होकर वर्तन नहीं होता था। परन्तु यह परि- श्रीकृष्णसे विरोध करना ठीक कहा जा स्थिति महाभारतकालमें बहुत कुछ बदल : सकता है ? रामायणमें बिभीषणका आच- गई। विशेषतः पूर्वके राज्य विस्तृत हो रण ऐसा नहीं है। वह रावणको छोड़कर गये और वहाँके बहुतेरे लोग शूद्र जातिके रामसे मिल गया । रावणका कृत्य दुर्यो- और हीन सभ्यताके थे; ब्राह्मण, क्षत्रिय, धनकी तरह ही निन्द्य था और विभीषण वैश्यकी संख्या अतिशय थोड़ी होनेके भीष्मकी तरह रामका भक्त था । अतएव कारण राज्यके झगड़ोंमें उनका बहुत कम यह प्रश्न होता है कि ऐसी स्थितिमें भीष्म- हाथ था और वे ध्यान भी नहीं देते थे। ने जो पाचरण किया वह अधिक न्याय- पाटलिपुत्रके राज्य पर नन्द क्षत्रिय बैठका है.या विभीषणने जो श्राचरण किया अथवा चन्द्रगुप्त शूद्र बैठ, जनसमूहको वह अधिक न्यायपूर्ण है। परन्तु इसमें
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