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महाभारतमीमांसा

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  • महाभारतमीमांसा

राष्ट्र बलममात्याश्च को यह उद्धर्षण और भीमतेजोवर्धन पृथार्षन्ति ते मतिः । संवाद अवश्य सुनना चाहिए; परन्तु यह य एवान्यन्तसुहृद- भी कहा है कि- स्तएनं पर्युपासते॥ इदं पुंसवनं चैव वीराजननमेवच । शोचन्तमनुशोचन्ति अभीक्ष्णं गर्भिणी श्रुत्वाध्रुवंधीरंप्रजायते॥ पतितानिव बान्धवान् । धृतिमन्तमनाधृष्यं जेतारमपराजितम् । ये राष्ट्रमभिमन्यन्ते ईदृशं क्षत्रिया सूते वीरं सत्यपराक्रमम् ॥ राज्ञो व्यसनमीयुषः ॥ इस उपदेशमें पराक्रम, धैर्य, निश्चय, मादीदरस्त्वं सुहृदो परतन्त्र और हीन कभी न रहनेकी मा त्वां दोणं प्रहासिषुः। मानसिक वृत्ति, और उद्योग इन पर जोर यदेतत्संविजानासि दिया गया है। यदि इष्ट हेतु सिद्ध न हो यदि सम्यग् ब्रवीम्यहम ॥ नो मृत्युका भी स्वीकार कर लेना चाहिए । कृत्वाऽसौम्यमिवात्मानं परन्तु उद्योग न करनेसे फल कभी नहीं जयायोत्तिष्ठ संजय । मिलेगा। उद्योग करनेसे फल मिलनेकी इस तरहसे माताका उद्धर्षण उपदेश सम्भावना तो रहती है। इस व्यवहार- सनकर सञ्जय उठा और फिर पराक्रम शुद्ध सिद्धान्तके आधार पर दैन्यावस्था- करके उसने राज्य प्राप्त किया। सौतिने में पहुँचे हुए गजा, गष्ट, कुटुम्ब अथवा इस संवादकी प्रशंसा और फलश्रुति भी मनुष्यके विश्वास रखनेके विषयमें यह योग्य रोतिसे कही है। शत्रुपीड़ित राजा- अत्यन्त मार्मिक उपदेश किया गया है।