ॐ महाभारतमीमांसा * ताओंके दिन-गतका वर्णन है । "पहले कलियुगं नाम अचिराद्यत्प्रवर्तते" कहा जो मनुष्य-लोकके दिन और रात बतलाये । है । तब, प्रश्न होता कि एक वर्षकी ही गये हैं उनके अनुरोधसे इन वर्षोंकी अवधिके भीतर त्रेता-द्वापरको सन्धि और गणना की गई है। यहाँ दिव्य वर्षका फिर आगे कलियुग किस प्रकार प्रा उद्बोध होता है। यदि यहाँ कुछ सन्देह सकेगा ? किन्तु पहले वर्णनमें 'एष' शब्द- रह जाता हो तो वह पूर्वोक्त उपनिषद् से समयका बोध नहीं होता, देशका ही वचनोंसे मिटा दिया जा सकता है। बोध होता है। अगले-पिछले सन्दर्भसे तात्पर्य,महाभारतमें इस कल्पनाका होना यह बात जानी जा सकती है। यहाँ शर्याति कदापि सम्भव ही नहीं कि कलियुग राजा और च्यवन ऋषिकी कथा दी है। एक हजार मानवी वर्षोंका था । चार च्यवन ऋषि तप करनेवाले अर्थात् त्रेता- लाख बयालीस हजार वर्षोंके युगकी युगके दर्शक हैं और शाति राजा, यक्ष- कल्पना कुछ हिन्दुस्थानमें ही न थी : कर्ता होनेसे, द्वापरका बोधक है। यह किन्तु पाश्चात्य देशोंमें जिन खाल्डियन वर्णन किया है कि तामें तप प्रधान और लोगोने ज्योतिष-शास्त्रका विशेष अभ्यास द्वापरमें यज्ञ प्रधान है। यहाँ १२५वें अध्याय- किया था उनमें भी यही कल्पनाथी। युगका तक यह कथाहै कि च्यवन ऋषिको शर्याति कुछ न कुछ बड़ा परिमाण माने बिना राजाने अपनी बेटी सौंप दी । अर्थात् ज्योतिषके लिए और कोई गति नहीं है। क्षेत्र-प्रशंसाके सम्बन्धमें यहाँ कहा गया और ज्योतिषके लिए उपयोगी बड़ा अङ्क है कि यह देश और तीर्थ, त्रेता और है (३० ४१२४ १२४१०० = ४३२००० ।) द्वापरकी सन्धि हो है । गणितके लिए यह बहुत ही उपयोगी है। महाभारतमें स्थान स्थान पर वर्णन वर्षके ३६० दिनोंको फिरसे १२००० से किया है कि भिन्न भिन्न युगोंमें भिन्न भिन्न गुणने पर यह अङ्क प्राप्त हुआ है । और धर्म प्रचलित रहते हैं। इस बातका यहाँ यह युगकी कल्पना प्राचीन कालसे अधिक विचार करनेकी आवश्यकता नहीं। प्रचलित है। कलियुगसे द्वापरके दूने, त्रेताके तिगुने • १००० मानवी वर्षका कलियुग मानने और कृतके चौगुने होनेकी कल्पना प्राचीन की कल्पना नो ओछी है ही: किन्तु इससे है। उपनिषदोसे देख पड़ता है कि प्राचीन भी ओछी कल्पना कुछ लोगोंने की है। कालमें इन शब्दोंका उपयोग द्यूतमें होता वे समझते हैं कि महाभारतमें एक युगका था। उस समय इनका अर्थ पाँसेके ऊपर- अर्थ एक वर्ष और चतुर्युगका चार वर्ष वाले एक, दो, तीन, चार चिह्नोंका होता है; और भिन्न भिन्न चारों वर्षोके नाम था। इस अर्थके प्राचीन उपयोग पर कृत, त्रेता, द्वापर और कलि है। किन्तु ध्यान देनेसे भी यह कल्पना ठीक नहीं यह कल्पना निर्मूल है। वनपर्वमें दो स्थला अँचती कि 'कृतयुग एक ही वर्षका नाम पर कुछ विरोधाभासी वचन हैं: उन्हींके है। एक और स्थान पर ऐसा जान पड़ता आधार पर यह तर्क किया गया है। है कि युग शब्द वर्ष-वाचक है, परन्तु वह "सन्धिरेष त्रेताया द्वापरस्य च," वनपर्व- ऐसा है नहीं। के १२१वें अध्यायमें, एक तीर्थक सम्बन्ध- तस्मिन्युगसहस्रान्ते सम्प्राप्ने चाचपा युगे। से कहा गया है। फिर १४१वें अध्यायमें अनावृष्टिमहाराज जायते बहुवार्षिकी ॥ हनुमान और भीमकी भेंटके समय "एत- वनपर्वके १८०वें अध्यायमें यह श्लोक
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