धर्म । पोग्यवर्गके भोजनमें और पितरोंकी पूजा- कि हिन्दुस्थानके जङ्गलों में रहनेवाले योगी में मांसका उपयोग होनेसे धर्म होता है। और तपस्वी लोग अहिंसा-धर्मको मानते वह भी कहा गया है कि यज्ञमें ब्राह्मण लोग हैं: वे कभी मांसाहार नहीं करते । इससे पशुमोका वध करते हैं और मन्त्रके योग- स्पष्ट देख पड़ता है कि बुद्धके पहलेसे से वे पशु संस्कृत होकर स्वर्गमें पहुँच ही हिन्दुस्थानमें अहिंसा-मतका चलन, जाते हैं। ठीक इसके विपरीत, तुलाधार- विशेषतया ज्ञानमार्ग पर चलनेवाले निवृत्त जाजलि-संवादमें यही काम निन्द्य और लोगोंमें था। यह बात भारतीय प्रायोंके अधार्मिक कहे गये हैं। और यह कहा दयायुक्त धर्मके लिए सचमुच भूषण- गया है कि जिन वेद-वचनोंमें हिंसा- स्वरूप है कि उन्होंने अपनी दयाको पूर्ण प्रयुक्त यज्ञ अथवा मांसान्नकी विधि स्वतन्त्र करके ज्ञानके लिए और आध्या. है, वे वचन किसी खाऊ श्रादमीने वेदमें त्मिक उन्नतके लिए हजारों वर्ष पहलेसे, मिला दिये हैं। इतिहासज्ञ लोग यश-कर्ममें सामाजिक एवं राजकीय हानिकी अत्रोंका यज्ञ पसन्द करते है । कर्णपर्वमें कछ भी परवा न करके. अहिंसा मो एक स्थान पर श्रीकृष्णने अहिंसाको परम- स्वीकार किया: और बहुतोंने मांस भक्षण धर्म कहा है। करना त्याग दिया। प्राणिनामवधस्तात सर्वज्यायान्मती मम। इसमें सन्देह नहीं कि वेद-विधिसे अनृतं वा वदेवाचं नच हिंस्यात्कथश्चन ॥ किये हुए यज्ञमें हिंसा होती थी। खास- (कर्ण. अ. २३-६६) कर भारती युद्धकं समय क्षत्रियोंमें विविध कुछ लोगोंका मत है कि अहिंसा- अश्वमेध और विश्वजित् प्रादि भारी धर्मका उपदंश पहलपहल बोद्धों और यज्ञ किये जाते थे। इन यज्ञोंमें हिंसा जैनोंने किया है। परन्तु यह बात सच | बहुत होती थी। वैदिक धर्म में इन यझोंकी नहीं है। अहिंसा-मत भारतीय आर्य धर्मके बेहद प्रशंसा है, इस कारण पुराने मतके मतों में ही है और वह बुद्धसे भी प्राचीन ग्राह्मण और क्षत्रिय इन यज्ञोको छोड़नेके है। अहिंसा-तत्त्वका उपदेश उपनिषदोंमें लिए तैयार न थे । अतएव, यह बात भी है। जो ज्ञानमार्गी विद्वान् मनुष्य पर- निर्विवाद है कि महाभारत-कालमें हिंसा- मेश्वर-प्राप्तिके लिए भिन्न भिन्न मोक्ष- प्रयुक्त यज्ञ हुआ करते थे। और, महाभा- साधनोकावलम्ब करता है, उसे अहिंसा रतके पश्चात् जब जब आर्य धर्मकी विजय तत्त्व अवश्य मान्य करना चाहिए-इस होकर बौद्ध और जैनधर्मका पराजय तस्वका प्रतिपादन भारतीय आर्य तत्त्व- हुआ करता था, तब तब बड़े बड़े पराक्रमी वेताओंने बहुत प्राचीन कालमें किया है। क्षत्रिय राजा खासकर अश्वमेघ यज्ञ किया अनुभवसे सिद्ध किया गया है कि वेदान्त- करते थे । इस प्रकार इतिहासमें शुक्र मतसे और योग-मतसे भी परमार्थी वंशके अग्निमित्र राजा अथवा गुप्त वंशके पुरुषके लिए हिंसा एक भारी अड़चन चन्द्रगुप्त राजाके अश्वमेध करनेका वर्णन है। और इस कारण, वनमें जाकर रहने-है । यद्यपि यह बात है, तथापि हिंसा- काले निवृत्त ज्ञानमार्गी न तो हिंसा करते प्रयक्त यज्ञोके सम्बन्धमें समस्त जन-सम- थे, और न मांसाहार करते थे। आधदायमें घृणा उत्पन्न हो गई थी। बहुतेरे खूनानी इतिहासकार (सन् ईसवीसे ४५० वैदिकों और अन्य ब्राह्मणोंने यह नियम वर्ष पूर्व) हिरोडोटस गवाही देता है कर दिया था कि यदि यह करना हो तो
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