४६० ® महाभारतमीमांसा जपा बही हैं जो कि ऊपर लिखे गये हैं। इससे निरिच्छस्त्यजति प्राणान् चौबीस नामों द्वारा विष्णुका स्मरण | ब्राह्मीं स विशते तनुम् । करनेकी पद्धति कमसे कम महाभारतके इस अध्यायमें संहिता जपका भी बराबर प्राचीन तो है। किंबहुना, इससे वर्णन है। किसी कामनासे जप करने- भी प्राचीन मानने में कोई बाधा नहीं है। वाला उस लोक या कामनाको प्राप्त उपवासके जो भिन्न भिन्न भेद बतलाये गये होता है। परन्तु जो फलकी रत्ती भर भी है, वे ही स्मृतिशास्त्रोंमें वर्णित चान्द्रायण| इच्छा न करके जप करता है, वह सब और सान्तपन प्रादिके हैं। परन्तु चान्द्रा- फलोसे श्रेष्ठ ब्रह्मलोकको जाता है। जपके पण, कृच्छ, और सान्तपन श्रादि व्रतोंका भिन्न भिन्न भेद आजकलकी भाँति महा- माम यद्यपि महाभारतमें प्रसङ्गानुसार | भारत-कालमें रहे होंगे। और इसमें प्राश्चर्य आ गया है तथापि उनका वर्णन नहीं है। नहीं कि कामनिक और निष्काम जपके तपकी विधि व्रतोंके यही भेद पाये जाते फल कामनिक तथा निष्काम यहोकी हैं । प्रस्तु: उपवासके सिवा वायु-भक्षण भाँति-क्रमसे खर्ग और अपुनरावर्ति प्रादि तपके और भी कठिन भेद महा- ब्रह्मलोक ही हैं। भारतमें वर्णित हैं। अहिंसा। भारती आर्य धर्म के अनेक उदास तपका एक प्रधान अङ्ग अथवा स्वरूप तत्वोंमें महत्वका एक तत्व अहिंसा है। जप है ।जपकी प्रशंसाभगवद्गीतामें की गई महाभारत-कालीन लोक-समाजमे यह मत है । उसको यज्ञ बतलाया गया है । विभूति पूर्णतया स्थापित हो चुका था कि 'किसी अध्यायमें भगवानने कहा है-"यज्ञानां प्रकारकी हिंसा करना पाप है। अन्य जपयज्ञोऽस्मि" । जपके सम्बन्धमे दो तीन स्थानमें इस पर विचार हो चुका है कि यह अध्याय शान्तिपर्व में भी हैं। उनका तात्पर्य मत किस प्रकार उत्पन्न हुआ और क्योंकर यह ध्वनित होता है कि जप है तो महा- बढ़ता गया। परन्तु यहाँ पर कहा जा फलका देनेवाला, परन्तु ज्ञानमार्गसे घट- समा सकेगा कि महाभारतके भिन्न भिन्न कर है। अधिक क्या कहा जाय, वेदान्तमें आख्यानों में इस सम्बन्धमे मतभेद देख जप मान्य नहीं है: अथवा उसके करनेका पड़ता है; और जिस तरह हिंसाका प्रचार विधान भी नहीं किया गया है । जप तथा मांसका भक्षण, महाभारत कालमें करना योगका मार्ग है। इसमें भी, किसी | धीरे धीरे बन्द हुआ, उसका आन्दोलन फलकी इच्छा न करके जप करना सबमें सामने देख पड़ता है। वनपर्वके धर्म- श्रेष्ठ है। किसी कामनासेजप करना अवर' ब्याध-संवादमें यदि हिंसा और मांसान- अर्थात् निकृष्ट है। का समर्थन देख पड़ता है, तो शान्तिपर्वके अभिध्यापूर्वकं जप्यं कुरुते यश्च मोहितः। २६४-६५वें अध्यायमें जो तुलाधार तथा यत्रास्य रागः पतति तत्र तत्रोपपद्यते ॥ जाजलिका सम्वाद है, उसमें हिंसा (शांति० अ० १६७) और मांसान्नको निन्दा की गई देख पड़ती योगासन लगाकर और ध्यानमग्न है। वनपर्वके २०८वे अध्यायमें कहा गया होकर जो प्रणषका जप करता है वह है कि प्राणियोंका वध करनेवाला मनुष्य ब्रह्मदेवके शरीर में प्रवेश करता है। तो निमिन मात्र है: और अतिथियों तथा
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