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महाभारतमीमांसा

8 महाभारतमीमांसा व्यभिचार करनेसे या डरपोक पुत्र उत्पन्न स्थिति देखनेवाले मनुष्यके मुंहसे कहलाया करनेसे माताको लगता है।" यहाँ अनु- है कि भारती-कालमें स्वर्ग और निरय शासन पर्षके ६३वें अध्यायका ३२ वाँ, दोनोंकी कल्पना कैसी और क्या थी। लोक देखिए-"अभोग्यावीग्सूरन्तु युधिष्ठिरका आचरण अत्यन्त धार्मिक विसस्तैन्यं करोति या ।" इस श्लोकार्द्ध में था, इस कारण उन्हें सदेह स्वर्ग जानेका सौति, कृटार्थक वीरम् शब्दका प्रयोग सम्मान मिला। देवदृनोंके साथ जिस करके, पाठकोंको क्षण भरके लिए स्तब्ध समय उन्होंने स्वर्गमें प्रवेश किया, उस कर देता है: परन्तु यह प्रकट है कि ' समय उनकी दृष्टि पहले दुर्योधन पर ही प्रवीरस पदच्छेद करना चाहिए। उनकी पड़ी। अपमे अत्यन्त तेजसे देवताओंके दासी बोली- "मुझे वह पातक लगे जो समान तेजस्वी दुर्योधन एक ऊँचे सिंहासन झठ बोलनेमे, भाई-बन्दोके साथ झगड़ा पर बैठा था। उसे खगेम देखकर युधि. करनेमें. बेटी बेचनेमे, अथवा अकेले ही ष्ठिरको बड़ा आश्चर्य हुआ जिसने अपनी रसोई बनाकर खानेमे, या किसी भयङ्कर ! महत्त्वाकांक्षाके लिए लाखों मनुष्योका कामद्वारा सत्य होने में लगता है। संहार कराया, जिसने पतियोंके प्रागे. चरवाहेने कहा--"चोर दासकुलमें बार गुरुजनोंके देखते, भरी सभामें द्रौपदीकी बार पैदा हो, उसके सन्तान न हो, वह दुर्दशा नीचताके साथ की, उसे स्वर्गमें दरिद्र हो अथवा देवताओंकी पूजा न सिंहासन कैसे मिल गया? धर्मराजको करे।" इस प्रकारकी सौगन्दे महाभारत-जंचने लगा कि स्वर्गमें भी न्याय नहीं है। में कई एक हैं, और उनसे देख पड़ता है उन्हें अपने सदाचारी भाई भी स्वर्गमें न कि प्राचारके मुख्य मुख्य नियम कौन देख पड़े। तब, उन्होंने देवदृतसे कहा- कौन थे। ____"मुझे वह स्वर्ग भी न चाहिए, जहाँ ऐसे स्वर्ग और नरककी कल्पना। लोभी और पापी मनुष्यके साथ रहना पड़े ! मुझे वहीं ले चलो जहाँ मेरे भाई अब यह देखना चाहिए कि महाभा- हैं।" तब, वे देवदृत उन्हें एक अन्धकार रतमें स्वर्ग और नरक या निरयके सम्बन्ध- 'युक्त मार्गसे ले गये। उसमें अपवित्र में क्या क्या कल्पनाएँ थीं। यह कहना पदार्थोकी दुर्गन्धि पा रही थी। जहाँ तहाँ प्रावश्यक न होगा कि वेदमें स्वर्गका उल्लेख मुर्दे, हड़ियाँ और बाल बिखरे पड़े थे। बारबार आता है। परन्तु उसमें नरक या अयोमुख कौवे और गीध आदि पक्षी वहाँ निरय अथवा यमलोकके सम्बन्ध विशेष मौजूद थे और लोगोको नोच रहे थे। वर्णन नहीं है । प्रत्येक मनुष्य-जातिमें ऐसे प्रदेशमें होकर जाने पर खौलते स्वर्ग और निरयकी कल्पनाएँ हैं । स्वर्गका हुए पानीसे भरी हुई एक नदी उन्हें अर्थ वह स्थान है जहाँ पुगयवान् लोग देख पड़ी और दूसरे पार एक ऐसा मरनेके बाद आते हैं और वह स्थान निरय घना जङ्गल था जिसमें पेड़ोंके पत्ते तल- है जहाँ पापियों की प्रामा, मरनेके पश्चात् वारकी तरह पैने थे। स्थान स्थान पर नाना प्रकारके दुःख भोगती है। स्वर्गा- लाल लोहशिलाएँ थीं और तेलसे भरे रोहण पर्वमें व्यासजीने, समस्त महा- लोहेके कड़ाह खोल रहे थे। वहाँ पर कवियोंकी उत्कृष्ट पद्धतिकी ही भाँति, पापियोंको जो अनेक यातनाएँ हो रही दोनों स्थानों में लदेह पहुंचकर प्रत्यक्ष थीं, उन्हें देखकर धर्मराज दुरावसे लौट