पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/४९५

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ॐ धर्म। ॐ - पड़े। उस समय कई एक दुःखी प्राणी चलो: वहाँ तुम्हारे भाई और भार्या देख चिल्ला उठे:-“हे पवित्र धर्मपुत्र, तुम पड़ेगी। वे उस स्वर्ग-सुखका अनुभव कर खड़े रहो । तुम्हारे दर्शनसे हमारी वेद- रहे हैं । इस आकाश-गङ्गामें स्नान करते माएँ घट रही हैं।" तब युधिष्ठिरने पूछा- ही तुम्हारी नर-देह नष्ट होकर दिव्य-देह "तुम कौन हो ?" उन्होंने कहा-"हम प्राप्त हो जायगी । तुम्हारे शोक, दुःस्त्र और नकुल, सहदेव, अर्जुन, कर्ण, धृष्टद्युम्न · वैर भाव आदि नष्ट हो जायेंगे।" प्रस्तु, आदि हैं।” यह सुनकर युधिष्ठिरको बहुत उल्लिखित वर्णनसे मालूम होगा, कि ही क्रोध हुआ । उन्होंने कहा- "इन 'भारती-कालमें स्वर्ग और नरककी कैसी लोगोंने ऐसे कोनसे पातक किये हैं जिससे कल्पनाएँ थीं : यह भी मालूम होगा कि ये ऐसी ऐसी दारुण यन्त्रणाएँ भोग रहे . पाप-पुण्यका सम्बन्ध स्वर्ग और नरकके हैं ! ऐसे पुण्यात्मा तो भोगे दुःख और साथ कैसा जोड़ा गया था: तथा पाप- दुर्योधन आनन्दसे स्वर्गमें देदीप्यमान हो? । पुण्यका फल किस क्रमसे मिलता है। यह बड़ा ही अन्याय है !" तब, "मैं यहीं भारती-कालमें उल्लिखित बातोंके सम्बन्ध रहता हूँ" ऐसा धर्म कहने लगा। इतने में में जैसी धारणा थी, उसका पता इससे स्वर्गके देव वहाँ आये। उनके साथ ही वह लग जाता है। समूचा दृश्य लुप्त हो गया। न वैतरणी नदी है, और न वे यम-यातनाएँ हैं। अन्य लोक। इतने में ही इन्द्रने कहा-“राजेन्द्र, पुण्य- . स्वर्ग-लोककी कल्पना बहुत प्राचीन पुरुष, तुम्हारे लिए अक्षय्य लोक हैं। है । वह वैदिक कालसे प्रचलित थी और यहाँ पाश्रो; यह तो तुम्हें धोखा दिया इसी कारण धर्मराज आदिके स्वर्ग जाने- गया था सो पूरा हो गया । अचरज मत का वर्णन है । परन्तु वैदिक कालके अन- करो। मनुष्यके दो सञ्चय होते हैं : एक न्तर उपनिषद्-कालमें कर्म-मार्गका महत्व पापका, दूसरा पुग्यका । पहलेका बदला घट गया और ज्ञान-मार्गके विचार जैसे नरक-प्राप्ति और दुसरेका बदला स्वर्ग- : जैसे अधिक बढ़ते गये, तदनुसार ही वास है। जिसके पाप बहुत हैं और पुण्य स्वर्गकी कल्पना भी पीछे रह गई और थोड़ा है उसे पहले स्वर्ग-सुख प्राप्त होता यह सिद्धान्त सहज ही उत्पन्न हो गया है और इसके पश्चात् उसको पातक कि, ज्ञानी लोगोंको कुछ न कुछ भिन्न भोगनेके लिए नरकमें जाना पड़ता है। शाश्वत गति प्राप्त होनी चाहिए । जिसके पाप थोड़े और पुण्य अधिक हैं भिन्न भिन्न सिद्धान्त-वादियोंने नाना उसे पहले निरय-गति मिलती है। इससे प्रकारसे निश्चित किया कि अमुक गति तुम्हारी समझमें पा जायगा कि तुम्हारे होनी चाहिए । ब्रह्मवादी लोग ब्रह्म- भाइयोको नरक-गति कयों मिली । और, लोककी कल्पना करके यह मानते हैं प्रत्येक राजाको नरक तो देखना ही पड़ता कि वहाँ मुक्त हुए पुरुषोंकी आत्मा पर- है । तुम्हें पहले नरकका कपटसे सिर्फ ब्रह्मसे तादात्म्य प्राप्त करके शाश्वत गति. झूठा दर्शन कराया गया। द्रोणके वधके को पहुँचती है। फिर वहाँसे पुनरावृत्ति समय तुमने सन्दिग्ध भाषण किया था। नहीं होती। जिस तरह यज्ञ-याग आदि उसी पातकके फल-स्वरूप तुम्हें कपटसे कर्म हलके दर्जेके निश्चित होकर इन्द्रका ही नरक दिखाया गया। अब तुम स्वर्गमें भी पद घट गया, उसी तरह उस कर्मी