& महाभारतमीमांसा - दोनों तत्वज्ञानोको रूपान्तर देकर प्रास्तिक ऊपर दिया हुमा है। इन चौबीस तत्वों मतमें उनका समावेश कर सके । यह ! के प्रतिपादनको शाता लोगोंने सांस्प- समावेश महाभारतकारने कैसे किया, शास्त्र नाम दिया है । सांख्यशास्त्रमें ये इसका विचार करना बहुत मनोरञ्जक चौबीस तत्व किस कारणसे अथवा किस होगा। सांख्योंका मुख्य कार्य सृष्टि के अनुमान-परम्परासे नियत किये गये हैं, पचीस तत्व नियत करना था। ये पच्चीस सो बतलाना कठिन है। इस बातकी उप- तस्व कोनसे हैं, यह महाभारतमें जगह । पत्ति हमें महाभारतमें नहीं मिलती कि जगह बारम्बार बतलाया गया है। एक मूल अव्यक्त प्रकृति और सूक्ष्म पंचमहा- संवाद उदाहरणार्थ कराल संक्षक जनक- भूतोंके मध्य दो तन्व, अर्थात् महत् और का और वसिष्ठका इस विषय पर दिया अहंकार किन कारणोंसे रखे गये हैं। हुआ है, उसीको हम यहाँ लेते हैं । जनक अथवा अनुमान परम्परासे उनकी राजवंशका नाम था, किसी एकहीराजाका कल्पना नहीं होती । तथापि उपनिषदोंसे नाम न था। इसी लिए महाभारतमे जनक- यह भी मालम होता है कि उपनिषद- को कराल इत्यादि भिन्न भिन्न नाम कालमें भी एक महत् तत्व आत्मासे दिये हैं । सुलभा-जनक-संवादमें जनकका निकला हुआ माना गया है । इसी भाँति नाम धर्मध्वज था। इस अध्यायमें यह स्थूल पञ्चमहाभूत और सूक्ष्म पंचमहा- स्पष्ट कहा है कि इसमें सांख्य-दर्शनका : भूतको भिन्न भिन्न माननेका प्रयोजन स्पष्टीकरण किया है । शान्ति पर्व अध्याय नहीं दिखाई देता, अथवा अनुमानसे ३०६ से ३०८ तक यह विषय दिया हुश्रा, ध्यानमें नहीं आता। जो सोलह विकृतियाँ है। सांख्योंके २५ तत्त्व इस प्रकार हैं:- नियत की गई हैं, वे स्पष्ट ही हैं। उनकी १ प्रकृति, २ महत्, ३ अहङ्कार,४-- पंच- कल्पना करनेमें विशेष बुद्धिमत्ताकी सूक्ष्मभूत, ये आठ तत्त्व मूल प्रकृति हैं। आवश्यकता नहीं। पंचमहाभूत, पंचज्ञाने- इसके आगे पाँच स्थूलभूत, पाँच इन्द्रियाँ, न्द्रिय और पंचकर्मेन्द्रिय और मन, ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ और मन, कुल मिलाकर बातें परिगणित करने में विशेष तत्व-विवे- चौबीस तत्त्व होते हैं; और सम्पूर्ण जगत्- चनकी आवश्यकता नहीं । सांख्योंका के प्रत्येक पदार्थमें, अथवा प्राणीमे-फिर बड़ा सिद्धान्त प्रकृति-पुरुष-विवेक है। चाहे वह देवता हो, मनुष्य हो, अथवा सांख्योंका मत महाभारत-कालमें इतना पशु या कीट हो-ये चौबीस तत्त्व होते : लोकमान्य हुआ था कि महाभारतने हैं । पच्चीसवाँतत्त्व पुरुष अथवा आत्माहै। जगह जगह उसका और वेदाम्त मत- अव्यक्तमाहुः प्रकृतिं परां प्रकृतिवादिनः। का एकीभाव दिखलानेका प्रयत्न किया तस्मान्महत् समुत्पन्नं द्वितीयं राजसप्तम ॥ है। प्रकृतिको क्षेत्र कहा है और पुरुषको अहंकारस्तु महतस्तृतीयमिति नः श्रुतम् । प्रकृतिका जाननेवाला क्षेत्रक्ष कहा है। पंचभूतान्यहंकारादाहुः सांख्यात्मदर्शिनः ॥ लिखा है कि प्रकृतिमें पुरुष रहता है, पताः प्रकृतयश्चाष्टौ विकारावापि षोडश। अतएव उसकी पुरुष संशा है । पुरु कहते पंच चैव विशेषावै तथापञ्चेन्द्रियाणि च ॥ है क्षेत्रको; ऐसी उसकी उपपत्ति लगाई ___(शांति पर्व अ० ३०३) है। जैसे क्षेत्र अव्यक्त है, वैसे ही ईश्वर अन्तिम श्लोकका अर्थ ठीक ठीक नहीं भी अव्यक्त है। और, जिसका वस्तुतः लगता । तथापि सम्पूर्ण श्लोकका तात्पर्य नन्वमें अन्तर्भाव नहीं होता, और जिससे
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