तत्वज्ञान। . होता है, तो कहना पड़ेगा कि पुरुषका नीच हजारों भाव देखने में आते हैं, उनका सानिध्य तो सदैव ही रहता है। ऐसी वर्गीकरण करना तत्वज्ञानका मुख्य कार्य दशामें त्रिगुणोंकी साम्यावस्था कदापि है । यहाँ तत्वज्ञानका दूसरा अत्यन्त कठिन नहीं होगी: और सृष्टिका लय कभी नहीं प्रश्न उपस्थित होता है। हम देखते ही हैं कि, होगा। यह सिद्धान्त हमको आगे बिल | जगत्में सुख-दुःख, सुरूप-कुरूप, सद्गुण- कुल ही नहीं ले जाता, और न हमारे | दुर्गुणके न्यूनाधिक परिमाणसे हजारों सामने रहनेवाले कटकका हल होता है। भाव भरे हुए हैं: तब फिर क्या जगतकी महाभारतके सांख्यदर्शनके विवेचनमें इस बुरी वस्तुएँ, घृणित पदार्थ, दुखी प्राणी सिद्धान्तका कहीं समावेश नहीं किया परमेश्वरने ही पैदा किये हैं ? ये परमेश्वर- गया है। परन्तु इतनी बात अवश्य सच ने क्यों उत्पन्न किये ? परमेश्वर यदि सर्व- है कि सांख्योंके माने हुए प्रकृतिके तीन शक्तिमान और सब पर दया करनेवाला गुण अवश्य ही भारती आर्योंके सब तत्व- है, तो उसकी रची हुई सृष्टि में अपूर्णता ज्ञानों में स्वीकार हुए हैं और गृहीत किये क्यों दिखलाई देती है ? इस बातके लिए गये हैं। उपनिषत्कालमें सत्व, रज, तम, तत्वज्ञानियों को बहुत सोचना पड़ता है कि, इन गुणोंके विषयमें उल्लेख नहीं है: और जगत्की भौतिक सृष्टिके असंख्य रोग और प्राचीन दशोपनिषत्कालमें, जैसा हमने भिन्न भिन्न प्रकारके दुःख किन कारणोंसे कहा है , सांख्य तत्वज्ञानका उदय नहीं : उत्पन्न हुए। भिन्न भिन्न सिद्धान्तो इसका हुआ थाः अतएव त्रिगुणोंका नाम दशी- ; भिन्न ही भिन्न जवाब भी देते हैं। प्लेटोके पनिषद्म नहीं पाता । परन्तु इसके बादके नवीन मतवादियोका सिद्धान्त बड़ा सब तत्वज्ञानके विचारों में त्रिगुणोंका विचित्र है। उनका मत है कि-"जड़ उल्लेख सदैव आता है । उपनिषदोंके अध्यक्तमें एक प्रकारकी प्रतिरोधशक्ति इधर तो, त्रिगुणका विषय, तात्विक होती है: अतएव ईश्वरकी आमाके अनु. विचारोके लिए एक आधारस्तम्भ ही हो सार अथवा इच्छाके अनुसार उस अव्यक्त- जाता है। श्वेताश्वतर उपनिषद में सांख्य · का स्वरूप व्यक्त होने में विन्न उत्पन्न होता और योग, इन्हीं तत्वज्ञानोका उल्लेख नहीं है और इस कारण सृष्टि में दिखाई देने- है, किन्तु ब्रह्माके लिए त्रिगुणातीतका विशे- वाले दोष अथवा अपूर्णता उत्पन्न होती षण भी लगाया है । महाभारतके बाद तो है। अर्थात् प्रकृति, पुरुषकी प्राज्ञा पूर्ण- प्रत्येक तत्वज्ञान-विषयक चर्चा में त्रिगुणों- तया स्वीकार नहीं करती, सदैव का उल्लेख आवश्यक हो गया है। सारांश झगड़ा करती है, इस कारण अधि. यह है कि, महाभारतकालके तत्वज्ञानके कांश सृष्टि में न्यूनता दिखाई पड़ती है। लिए त्रिगुण एक निश्चित भाग है। इसी भाँति आध्यात्मिक सृष्टिमें भी भौतिक इन्द्रियाँ आत्माकी अाझा पूर्णतया त्रिगुण नहीं मानतीं । श्रात्मा यद्यपि परमात्माका सांख्योंका प्रकृति-पुरुष विवेक जैसा । अंश है, वह स्वयं सद्गुणपूर्ण है, तथापि एक महत्वपूर्ण आविष्कार है, उसी भाँति जड़के सान्निध्यसे उस पर आवरण पड़ता त्रिगुणोंको कल्पना भी अत्यन्त महत्वको , है, और इस कारण, कुछ कालके लिए है । भौतिक और आध्यात्मिक दृष्टिसे इस उसका देहविषयक स्वामित्व नष्ट हो जाता जगत्का विचार करते हुए, उसमें जो उच्च- है। अतएव जगत्में दुर्गुणोंका प्रादुर्भाव
पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/५१९
दिखावट