४६४ ॐ महाभारतमीमांसा ® उदानादुच्छसिति प्रतिभेदाच भाषते। हैं। वायुका केन्द्रस्थान नाभिमें बतलाया इत्येवं वायवः पंच चेष्टयन्तीह देहिनम् ॥ गया है; और अग्निका केन्द्रस्थान शिरमें प्राणवायुसे मनुष्य जीवित रहता है। बतलाया है। शरीरमें तीसरा केन्द्रस्थान व्यानसे मनुष्य बोझ उठाता है । अपानसे हृदय है। उससे चारों ओर, इधर-उधर, मलमूत्रोत्सर्ग करना है। समानसे हृदय- नीचे-ऊपर, नाड़ियाँ निकली हैं, जो कि की क्रिया चलती है। उदानसे उच्छास सारे शरीरको अन्न-रस पहुँचाया करती अथवा भाषण होता है। इस प्रकार ये हैं । और, यह पोषण दस प्राणों के जोरसे भेद बतलाये हैं; और इन सबके समूहका , होता रहता है। नाम प्राण है। प्राणोंका निरोध करके प्रवृत्ताः हृदयात्सर्वात्तिर्यगूर्ध्वमधस्तथा। प्राणायाम करनेकी, सिद्ध दशा प्राप्त · वहन्त्यन्नरसान्नाड्यो दशप्राणप्रचोदिताः ॥ करनेवाली युक्तिका भी विचार योगशास्त्र- (वनपर्व अ० २१३) ने खूब किया है । प्राणायामका मार्ग कहाँ- जैसे पाँच इन्द्रियों में कर्मेन्द्रियोंके योग- तक सफलतापूर्ण है, यह बतलानेकी श्राव- से दस इन्द्रियाँ हुई, उसी प्रकार मूल श्यकता नहीं है। परब्रह्मस्वरूपसे प्राणकी पाँच प्राणोंके दस प्राण हुए। ये नवीन प्रशंसा उपनिषदोंमें अनेक जगह आई है: पाँच प्राण टीकाकारनं इस प्रकार बत- और महाभारतमें भी बहुत आई है। भग- , लाये हैं-नाग, कर्म, कृकल, देवदत्त और वद्गीतामें प्राण और अपान. दोनोंका अर्थ धनञ्जय । परन्तु यह नहीं बतलाया कि, "भीतर और बाहर जानेवाला श्वास" इनके स्थान कौनसे हैं, और कार्य कौनसे किया गया है। और योगसाधनमें यह बत- हैं। उपर्युक्त वर्णनसे यह कहा जा सकता लाया है कि,"प्राणापानौ समौ कृत्वा नासा- है कि, नाड़ियाँ और प्राण आजकलके भ्यन्तरचारिणी।" अर्थात् नासिकाके दोनों नर्वस सिस्टिमके स्थानमें हैं। शरीरके पुटोंमें प्राण और अपानको समान ही मुख्य जीवकी क्रियाओं और शक्तियोंके चलाना चाहिए । इसी भाँति गीतामें यह विषयमें, अर्थात् प्राण, अग्नि और हृदयसे भी कहा है:- निकलनेवाले नाड़ी-विस्तारके विषयमें, अपाने जुह्वति प्राणं प्राणोऽपानं तथाऽपरं। योगशास्त्रमें खूब विचार किया गया है: अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति ॥ और प्राचीन काल तथा आजकलके योगी इससे जान पड़ता है प्राणका विचार भी कितने ही चमत्कार करके दिखलाते हैं। बहुत प्राचीन कालमें हुआ था। हृदयकी क्रिया बन्द करना, श्वासोच्छास प्राणकी ही भाँति जीवका दूसरा । बन्द करना, इत्यादि बातें महाभारतमें लक्षण उष्णता अथवा अग्नि है। इसकी ' नहीं बतलाई गई हैं। परन्तु महाभारतके ओर भी भारतीय दार्शनिकोंका ध्यान । प्रत्येक तत्वज्ञानके विचारमें प्राण, नाड़ी गया था । सम्पूर्ण शरीरकी उष्णता और और हृदयका वर्णन ज़रूर पाता है। शिरकी उष्णताका विचार करते हुए उन्होंने यह प्रतिपादन किया कि, देह इन्द्रियज्ञान । और शिरमें अग्नि रहता है। वनपर्वक जावक विषयमें देहकी जो मुख्य अध्याय २१३ में, धर्मव्याध-संवादमें इस क्रियाएँ हैं, उनमें उपर्युक्त वातोके अतिरिक्त, वातका मनोरंजक वर्णन किया गया है सुषुप्ति और स्वप्नको क्रियाओं अथवा कि, शरीरमें अग्नि और वायु कहाँ रहते अवस्थाओंका विचार भी तत्वज्ञानमें उप-
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