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महाभारतमीमांसा

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  • महाभारतमीमांसा *

आत्माका स्वरूप भी मलिन होता है: मन बैठाना अत्यन्त दुःसाध्य कर्म है। और पर अज्ञानका प्रभाव जम जाता है। और योगतत्त्वज्ञानका प्रयत्न यही है कि, भिन्न फिर दुष्ट मनका इन्द्रियों पर प्रभाव होता भिन्न यम, नियम और प्रासन इत्यादि है, जिससे इन्द्रियाँ विषयमें श्रासक्त हो बतलाकर मनको स्वस्थ बैठानेकी क्रिया जाती हैं । पापसे हजारों इच्छाएँ उत्पन्न सिद्ध कराई जाय । ये सब बातें होती हैं: और मन सदैव विषयवासनामें विस्तारके साथ यहाँ नहीं बतलाई जा मग्न रहता है, तथा भीतर रहनेवाले ईशां- | सकतीं । तथापि योग साधनेमें पञ्च- शस्वरूपी आत्माकी ओर अपनी पीठ कर प्राण, मन और इन्द्रियोंके निरोधकी ओर लेता है । मतलब यह है कि, जब इन्द्रियाँ ध्यान रहता है । महाभारतमें अनेक स्थलों अन्य ही मार्गकी ओर चलकर विषयों पर इस योगका विस्तार-पूर्वक वर्णन स्वच्छन्द संचार करने लगती हैं, उस समय किया गया है । एक स्थानका वर्णन संक्षेप- मनुष्य दुःखी होता है। परन्तु वह जब में यहाँ दिया जाता है:-"मनके सब उनको अपने वशमे रखता है, तब सुखी विकल्पोको बन्द करके और उसको होता है। जो इन्द्रियोंके सारे व्यापार खन्वमें स्थिर रखकर और शास्त्रोंमें बत- बन्द कर देता है, उसे अक्षय सुखकी : लाये हुए यमनियमोंका पालन करके प्राप्ति होती है। .. योगीको किसी वृक्षके हूँठकी तरह निश्चल हो ऐसी जगह बैठना चाहिए कि वासनानिरोध और योगसाधन । जहाँ मन व्यग्र न हो; और फिर इन्द्रियो- इस प्रकार दुःखका परिहार होनेकी : को भीतर लेकर, अर्थात उनको अन्त- एक ही युक्ति अर्थात् इच्छाओंका नाश मुख करके, मनकी स्थिरताको सिद्ध करना है। जैसा कि एक अंग्रेजी ग्रन्थ- करना चाहिए । कानसे सुनना न चाहिए., कारने कहा है कि, इच्छाकी डोरी तोड़ आँखोंसे देखना न चाहिए, नाकसे घना डालने पर प्रात्माका विमान श्राकाशमें न चाहिए, और न त्वचासे स्पर्शका ज्ञान चढेगा। उच्ळारूपी रज्जीने श्रात्माको करना चाहिए। सब इन्द्रियोंका मनमें पृथ्वीसे जकड़ रखा है। उनको तोड़नेसे लय करके योगीको मन स्थिर करना प्रान्मा स्वाभाविक ही ऊर्ध्व दिशाको चाहिए । यद्यपि मनका धर्म भ्रमण करके जायगा । योग सिद्धान्तकी मुख्य बात इन्द्रिय द्वारा बाहर भटकनेका है, अथवा यही है । मन सदैव इच्छाओंके चक्कर में किसी आधारके न रहते हुए यद्यपि श्रा जाता है और अन्तरात्माको और ही : मन ना सकता है, तथापि उसको एक मार्गमें ले जाता है, तथा मनुष्यको नाना : जगह बैठाना चाहिए । जिस समय पाँचों प्रकारके कर्म करनेके लिए बाध्य करता: इन्द्रियों और मनका निरोध हो जाता है, है; और विषयोपभोगमें फँसाता है। अत- उस समय भीतर एकदम ऐसा प्रकाश एव मन यदि अपनी इच्छाओसे पूरा वृत्त आ जाता है, जैसे मेघोंमें एकदम बिजली- होगा, अर्थात् वह यदि शान्तिसे बैठेगा, का प्रकाश छाजाय । जिस प्रकार पत्ते पर तो आत्मा अपने सम्पूर्ण तेजसे प्रकाशित पानीका बिन्दु कुछ कालतक स्थिर रहता होगा । पतञ्जलिके योगसूत्रोंका पहला है, उसी प्रकार ध्यानमें पहले योगीका सूत्र यही है कि, मनको शान्तिके साथ मन कुछ कालतक स्थिर रहता है । परन्तु बैठाना ही योग है । मनको शान्तिके साथ वायुकी सहायतासे बहुत जल्द योगीको