तत्वज्ञान। ५०१ - - अनादि और सान्त वस्तुएँ हैं । यही पाश्चात्य देशोंमें नहीं हुआ । जो लोग संक्षेपमें कर्म, पुनर्जन्म और मोक्षका यह मानते हैं कि, शरीरसे प्रात्मा भिन्न है, 'सिद्धान्त है।भारती आर्योके आस्तिक और उनको दो और प्रश्नोंका हल करना श्राव- मास्तिक दोनों मतवादियोंको यह सिद्धान्त श्यक होता है। प्रान्मा शरीरमें क्यों और स्वीकार है । वेदान्त, सांख्य,योग,कर्मवाद कब प्रवेश करता है तथा जब वह शरीर इन आस्तिक मतोंको कर्म, पुनर्जन्म और छोड़ता है, तब कहाँ जाता है ? जो लोग मोलका सिद्धान्त स्वीकार है:तथा नास्तिक, प्रात्माका अस्तित्व मानकर उसका न्याय, बौद्ध, जैन, इनको भी वह मान्य है। संसारित्व नहीं मानते, उनको इन प्रश्नोंका यद्यपि वे इश्वरको नहीं मानते हैं, तथापि हल करना कठिन होता है। ग्रीक तत्ववेत्सा यह उनको स्वीकार है कि आत्माका प्लोटिनस्, जान पड़ता है, पुनर्जन्मवादी संसरण कर्मानुरूप होता है: और पुन- न था। उसने इसका यह उत्तर दिया है जन्मसे छुटकारा पाना मनुष्यका परम कि, "सृष्टि (अथवा स्वभाव) देह उत्पन्न धर्म है । अर्थात् यह सिद्धान्त सभीका है करती है। और आत्माके रहने के लिए कि, मोक्ष प्रथवा निर्वाण ही परमपुरुषार्थ उसे तैयार करती है। उस समय प्रात्मा है। हाँ, मोक्ष-प्राप्तिका मार्ग अवश्य ही उस देहमें रहने के लिए आप ही आप पाता भिन्न भिन्न तत्वज्ञानोंमें भिन्न भिन्न बन- है। उसे किसीकी ज़बरदस्तीकी श्राव- लाया है। कहीं आमाका स्वरूप भी श्यकता नहीं रहती । उस पर किसीकी भिन्न माना है । परन्तु आमाको मान सत्ता नहीं रहती: और उसे कोई भेजता लेने पर, फिर ये भागकी सीढ़ियाँ भी नहीं । किन्तु स्वाभाविक ही आकर्षण- उन सबको एक ही सी मान्य हैं-अर्थात् में आत्मा देहमें पाता है। क्योंकि देहको श्रान्माको हजारों जन्म-मृत्य प्राप्त होतात्माको चिन्ताकी आवश्यकता रहती हैं , जीवन दुःखमय है और इस जन्म- है। श्रान्मा चूँकि शरीरमें आता है, अत- मरणके भवचक्रसे छूटना ही सारे तत्व- एव दोनोंकी परिपूर्णता हो जाती हैं।" सानोंका परम उद्देश्य है । येनीन बातें: इस कथनमें कोई विशेष अर्थ नहीं, और सब सिद्धान्तोंको समान ही स्वीकार हैं। यह सयुक्तिक भी नहीं जान पड़ता। क्योंकि (हाँ, चार्वाक मतवादी इन तीनोंके पहले तो यही अच्छी तरह समझमें नहीं विरुद्ध हैं। उनके मतानुसार देह ही आत्मा आता कि, प्रान्मा परमात्मामें रहना छोड़- है: और संसारमें जन्मना ही सुख है: कर इस भौतिक शरीरमें आकर रहनेकी तथा मृन्यु ही मोक्ष है।) । दुःखद स्थिति स्वीकार क्यों करेगा ? आत्मा- तो ईशांश है, यह उसे स्वीकार है: फिर मात्माका भावागमन। यदि ईश्वरकी इच्छा उसे नीचे नहीं ढके. अच्छा, अब हम इस बातका थोड़ा। लती, तो हम नहीं समझते कि, आत्मा विचार करेंगे कि, भारतीय आर्योने पृथ्वी पर क्यों आवे । ग्रीस देशके दूसरे आत्माकी संसृतिका सिद्धान्त कैसे स्थिर तत्ववेत्ता, जो यह नहीं मानते कि मात्मा किया। यह सिद्धन्त पायथागोरस परमेश्वरका अंश है, वे इस विषयमें ऐसा नामक ग्रीक तत्ववेत्ताको स्वीकार हुना मत देते हैं । ये लोग निरीश्वरवादी है, था: और प्लेटोके अनुयायियोंके भी पसन्द | इसलिए उनके मार्गमें ईश्वरकी बाधा आया था। परन्तु उसका विशेष प्रचार बिलकुल नहीं हैं। उनके मतसे, प्रात्मा
पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/५२९
दिखावट