पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/५२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
५००
महाभारतमीमांसा

५०० & महाभारतमीमांसा है - - ज्योतिः पश्यन्ति युञ्जानाः कर्मसे है। यह एक अत्यन्त महत्वका ... तस्मै योगात्मने नमः ॥ सिद्धान्त भारती आर्य तत्वज्ञानमें है। निद्राका त्याग करनेवाले, प्राणका अन्य किसी देशमें इस सिद्धान्तका जय करनेवाले, सत्व गुणका अवलम्बन उद्म नहीं दिखाई पड़ता। पाश्चात्य तत्व- करनेवाले, इन्द्रि को जीतकर वशमें रखने- ज्ञानमें इसका कारण कहीं नहीं बतलाया थाले और योगमें युक्त रहनेवाले यांगी गया है कि मनुष्योंको जन्मतः भिन्न भिन्न ज्योतिस्वरूप जिस परमेश्वरको देखते हैं, परिस्थिति क्यों प्राप्त होती है । ईश्वरकी उस योगखरूपी परमात्माको नमस्कार | इच्छा अथवा देव, अथवा यहच्छाके है । उपर्युक्त लोकमें योगके मूलभूत अतिरिक्त अन्य कोई कारण वे नहीं सिद्धान्त और क्रियाएँ संक्षेपमें मुन्दर दिखला सकते । कर्मके सिद्धान्तसे, एक रीतिसे दी हुई हैं। प्रकारसे नीतिका बन्धन उत्पन्न होता कर्मसिद्धान्त। है। यही नहीं, किन्तु कर्म-सिद्धान्तसे यह बात निश्चित होती है कि इस जगत्की योगके तत्व-शानने इसकी मीमांसा भौतिक क्रान्तियाँ जिस प्रकार नियमबद्ध करके, कि इस जगत्में प्रात्माको दुःख है, उसी प्रकार व्यावहारिक क्रान्तियाँ क्यों होता है, यह निश्चित किया कि भी एक अबाधित नियमसे बँधी हुई हैं। इन्द्रियाँ विषयोंकी ओर जीवको बार बार वे यहच्छाधीन नहीं हैं। इसके सिवा, खींचती हैं, इसलिए दुःख होता है: यह बतलानेकी आवश्यकता ही नहीं है अर्थात् दुःखके नाश करनेका साधन यह कि कर्म-सिद्धान्तका मेल पुनर्जन्मके है कि इन्द्रियोंको मन सहित रोका जाय : सिद्धान्तसे है। कर्म अनादि माना गया और समाधिमें जीवात्माका परमात्मासे । है: कयोंकि यह प्रश्न रह ही जाता है कि एकीकरण किया जाय । परन्तु यह बात : बिलकुल प्रारम्भमें ही जीवने भिन्न भिन्न अत्यन्त कठिन है । साधारणतया मनुष्य कर्म क्यों किये । इसलिए ऐसा सिद्धान्त प्राणी संसारमें मग्न रहता है: और है कि जैसे संसार अनादि है, और इन्द्रियोंका निरोध करना अथवा मनको । उसका आदि और अन्त कहीं नहीं हो स्वस्थ बैठाना, ये दोनों बातें एक समान ही सकता, उसी प्रकार कर्म अनादि हैं: कठिन हैं। इस कारण जीवको जन्ममरणके ' और ईश्वर प्रत्येक प्राणीको उसके कर्मा- सकरमें पड़कर कर्मानुरोधसे संसारकी नुसार, भले बुरे कार्य के लिए पारितो- अनेक योनियों में घूमना पड़ता है। जिस षिक अथवा दण्ड देता है । कर्मका अन्त प्रकार यह महत्वका सिद्धान्त, कि जीवका और संसारका अन्त एकही युक्तिसेह संसरण कर्मानुसार होता है, भारती सकता है। वह यह कि योग अथवाज्ञान- प्रार्य तत्वज्ञानमें प्रस्थापित हुश्रा. उसी से जब कि जीवात्माका परमात्मासे प्रकार उपनिषदोंमें भी कर्म और जीवके तादात्म्य हो जाता है, तब जीवात्माका संसारित्वका मेल मिलाया हुआ हमारी अनुपभुक्त कर्म सम्पूर्ण जल जाता है। दृष्टिमें आता है । जीव मिन्न भिन्न योनियों- और प्रारब्ध-कर्मका भोग होने परमात्मा- में कैसे जाता है, अथवा एक हो योनिके को पुनर्जन्मसे मुक्ति मिलती है। अर्थात् भिन्न भिन्न जीवोंको सुख दुःख न्यूनाधिक उससे कर्म और संसृतिका एक दम नाश क्यों होता है-इस विचारका सम्बन्ध होता है। इस प्रकार कर्म और संमत