पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/५३१

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  • तत्ववान |

५०३ सुखदुःखयोश्च प्रहणात् प्रमाण है । इसलिए ऐसी कल्पना की है छिन्नस्य च विरोहणात ।। | कि, लिंगदेह भी अगुष्टप्रमाण है। यह जीवं पश्यामि वृक्षाणाम् 'निर्विवाद है कि, यह अंगुष्ठप्रमाण मनुष्य- अचैतन्यं न विद्यते ॥ के हृदयकी कल्पनासे स्थिर किया हुआ यह शान्ति पर्व अध्याय ८५ में कहा और काल्पनिक है। उपनिषदोंमें भी कहा है। वृक्षोंको चूंकि सुख-दुःख होता है है कि "अंगुष्टमात्रो हृदयाभिक्कमः" । अर्थात् और वे काटनेसे फिर बढ़ते भी हैं, इससे हृदयसे वेष्ठित जीव अंगुष्टमात्र है। परन्तु यह सिद्ध होता है कि वृक्षों में जीव है। यह केवल कल्पना है, सच नहीं। क्योंकि यही नहीं, किन्तु प्राचीन तत्वज्ञानियोंने यह लिंगदेह-सहित अात्मा जब शरीरसे निक- भी निश्चित किया है कि, वृक्षोंमें पंचेन्द्रिय लता है, उस समय वह दिखाई नहीं भी हैं । शान्ति पर्व अध्याय १८४ में भृगुने देता। महाभारतमें लिखा है कि, वह भरद्वाजको यह बात बतलाई है-"वृक्षों-: श्राकाशके समान सूक्ष्म (अर्थात् परिमाण- में शब्दज्ञान है, क्योंकि शब्दोंके योगसे ; रहित) है: और मनुष्यदृष्टि के लिए अदृश्य वृतोंके पुष्प और फल गिर पड़ते हैं। है । इसके अतिरिक्त यह भी लिखा है कि वृक्षों में स्पर्श है, क्योंकि उष्णताके योगसे : केवल योगियोंको, उनकी दिव्यशक्तिसे, वृक्षांका वर्ण म्लान होता है । वृक्षोंमें दृष्टि शरीरसे बाहर निकला हुअा अात्मा है, क्योंकि बलोकी बाढ़ और गमन : दिखाई दे सकता है। जिस समय धृष्ट- ए दिशासे होता रहता है। वनोंमें गन्ध' द्यनने तलवारसे, योगावस्थामें द्रोणा- है, क्योकि भिन्न भिन्न धूपोंके योगसे चार्यका गला काटा, उस समय द्रोणका वृक्ष निरोगी होते हैं" इत्यादि । बङ्गालके । श्रान्मा ब्रह्मलोकको गया । संजयने कहा है रसायन-शास्त्रज्ञ डाकर वसुने यह सिद्ध कि, वह पाँच मनुष्यों को ही दिखाई दिया। किया है कि, उपर्युक्त कल्पनाएं आजकल- "मुझको, तथा अर्जुन, अश्वत्थामा, श्रीकृष्ण के वैज्ञानिक प्रयोगसे भी सिद्ध होती हैं। और युधिष्ठिरको ही वह महात्मा, योगबल- इससे प्राचीन भारती श्रार्योंकी विलक्षण से देहसे मुक्त होकर परमगतिको जाते बुद्धिमत्ताका हमको अच्छा परिचय समय, प्रत्यक्ष दिखाई दिया। (द्रोणपर्व मिलता है। अध्याय १२२) शांतिपर्व अध्याय २५४ में लिङ्गदेह । यह बात स्पष्ट बतलाई गई है कि, शरीर- से जाते समय आत्माको देखनेकी शकि भारती पार्योने यह कल्पना की है सिर्फ योगियों में ही होती है। कि, एक देहसे दुसरे देहमें संसरण करते शरीराद्विप्रमुक्तं हि सूक्ष्मभूतं शरीरिणम् । हुए आत्माके आसपास सूक्ष्म पञ्चमहा- कर्मभिः परिपश्यंतिशास्त्रोक्तः शास्त्रवेदिनः॥ भूतोंका एक कोश रहता है और यह भी इसका तात्पर्य यह है कि, शास्त्र माना है कि, इन सूक्ष्म भूतोंके साथ ही जाननेवाले अर्थात् योगशास्त्र जाननेवाले सूक्ष्म पंचेन्द्रियाँ भी होती हैं । कहते लोग, उस शास्त्रमें बतलाये हुए कर्मोसे हैं कि, इन सबका मिलकर एक लिङ्ग- अर्थात् साधनोंसे, शरीरसे बाहर जाने- देह होता है। ऐसा ख़याल है कि लिंगदेह , वाले सूक्ष्मभूत जीवको देख सकते हैं। सहित आत्मा हृदयके भीतरके श्राकाश- अर्थात् प्राचीनोंका यह सिद्धान्त है कि, में रहता है। यह हृदयका आकाश अंगुष्ठ- - जीव, शरीरसे बाहर निकलते समय