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- महाभारतमीमांसा *
वृत्ति नहीं होती । इस मार्गसे योगी, अधोगति। ... वेदान्ती और जो अत्यन्त पुण्यवान् प्राणी देवयान और पितृयाणके अतिरिक्त उत्तरायण शुक्ल पक्ष में मरते हैं, वे जाते हैं। सूर्यलोकमें जाने पर विद्युम्की सहा- एक और तीसरा मार्ग पापी लोगोंके यतासे वे भिन्न भिन्न स्थानों में भी जाते हैं। आत्माका होता है । ये प्रात्मा ऊर्ध्वगति- और वहाँसे, अथवा सीधे, ब्रह्मलोकको को जाते ही नहीं, किन्तु देहसे निकलते ही किसी न किसी तिर्यक् योनिमें जाते जाते हैं। कुछ कुछ इसीप्रकारकी कल्पना प्रीक तत्ववेत्ताप्लोटिनसकी भी है। यह . हैं: मशक, कीटक इत्यादि क्षुद्र प्राणियोंके जन्ममें जाकर बार बार मरणको प्राप्त कहता है-"जो लोग इस पृथ्वी पर होकर फिर फिर वही जन्म लेते हैं, उत्तम नीतिपूर्ण आचरण करते हैं, वे . मरने पर सूर्यतक जाते हैं: पर वहाँसे अथवा कुत्ते, गीदड़ इत्यादिकी दुष्ट पशु- फिर वे लौटते हैं, और पुण्याचरण योनियों में जाते हैं । आत्माके संसरण और पुरायपापाचरणका इस प्रकार मेल करके फिर ऊपर जाते हैं। इस प्रकार | मिलाकर भारतो आर्य तत्ववेत्तात्रीने अनेक जम्मोंके बाद उनको अन्तिम मोक्ष, . नीतिके आचरणको श्रेष्ठ परिस्थितितक अर्थात् जड़देहसे मुक्ति मिलती है ।" । पहुँचा दिया । महाभारतमें अनेक जगह साधारण भारती आस्तिक मतवादियोंके। इस बातका ग्वूब विस्तृत विवेचन किया मतानुसार ब्रह्मलोक ही अन्तिम गति है। गया है कि कौनसा पाप करनेसे कौनसी यहाँसे फिर मान्मा नहीं लौटना, और गति, अर्थात् पापयोनि मिलती है। उसे अन्य लोक उससे कम दर्जेके हैं, जहाँसे 1 यहाँ बतलानेकी आवश्यकता नहीं । परन्तु श्रात्मा लौट पाना है। विष्णुलोक अथवा प्रास्तिक और श्रद्धामेचलनेवाले साधारण वैकुण्ठ, शङ्करलोक अथवा कैलास इत्यादि जनममूहको पापाचरणमे निवृत्त करने अनेक लोक हैं । मा म्वयाल है कि इन की यह बहुत ही अच्छी व्यवस्था है। लख लोकोम पुगय भोगनेके बाद आत्मा लौट आता है । यद्यपि कहा गया है कि- संमृतिसे मुक्ति । तारारूपाणि सर्वाणि यत्रतत् चन्द्रमंडलम् कि संमृतिके इस सतत चलनेवाले जन्म- __. सभी भारती तत्वज्ञानी यह मानते हैं यत्र विभ्राजते लोके खभासासूर्यमंडलम्॥ मरणके फेरेसे मुक्त होना ही मानवी खानान्येतानि जानीहि जनानांपुग्यकमेणाम् जीवनके इति कर्तव्यका उच्चतम हेतु है। कर्मक्षयाच ते सर्व व्यवन्ते वै पुनः पुनः ॥ । क्योंकि जैसा हमने पहले बतलाया है, सथापि शिव अथवा विष्णुके उपा- पुनर्जन्मका फेरा सब मतवादियोंको सक अपने अपने लोकोंको अन्तका ही स्वीकार है। सब तस्वज्ञानोंका अन्तिम लोक मानते हैं परन्तु इन्द्रलोक अथवा साध्य मोक्ष है । प्रत्येक तत्वज्ञानका कर्तव्य- स्वर्ग सबसे नीचेका लोक है। और यह क्षेत्र अथवा उपदेश-कार्य यही है कि ऐसा सभीका मत है कि यहाँसे पुण्य क्षय हो उपाय यह बतलाये, जिससे मनुष्यको जाने पर प्राणी नीचे पृथ्वी पर उतर इस भवचक्रसे मुक्ति मिले । सबका प्राता है। क्योंकि इन्द्रदेवता यद्यपि वैदिक- अन्तिम साध्य एक ही है। हाँ, मिन मिन कालीन है, तथापि बादके कालमें नीचेके मतोंके मार्ग भिन्न भिन्न हैं । कपिल बजेकी मानी गई। मतानुयायी सांख्य यह मानते हैं किi